मुझे अपनी गरीबी पर गर्व है
ऐश्वर्य के स्नेह-जल से वंचित, सत्य और न्याय के सहारे जी रहे विगतराम पर, जाति-पाति या कुल का आधिपत्य नहीं था, पर उसे अपनी गरीबी पर बहुत गर्व था| उसका कहना था, ‘इस संसार में धर्म के बंधन से कहीं अधिक कठोर होता है, धन का बंधन| धन, समाज में विभिन्नता और द्वेष उत्पन्न करता है तथा उसकी दाह्यमय चिंता, आत्मा को सोने की जंजीर बनकर बाँधे रखता है| मुझे ऐसे धन न होने का गर्व है, उसके तर्क को सुनकर उसका दोस्त सलीम कहता, ‘विगतराम! तुम में जो सरलता, जो इमानदारी, जो श्रम और धर्मबुद्धि है, मैं तो कहूँगा, तुम मनुष्य नहीं देवता हो! तुमको भोग-विलास से मतलब नहीं, अपनी दयनीय दशा पर भी संतुष्ट रहना; तुम्हारा देवत्व है| देखना, तुम्हारा यह सीधापन एक दिन तुम्हारे लिए घातक सिद्ध होगा| मेरी मानो, अपनी सोच को बदल दो!’
एक दिन विगतराम, मुखिया का खेत जोत रहा था, तभी उसने देखा, उसका दोस्त सलीम बाज़ार से, जरूरत से अधिक सामान अपने सर पर लादे, घर लौट रहा है|
विगतराम चिल्लाया, पूछा, ‘सलीम! ओ सलीम, क्या बात है यार, आज तो लगता है, पूरा बाज़ार ही खरीदकर घर ले जा रहे हो, कोई अनुष्ठान है क्या?’
सलीम, करीब आकर सिर का बोझ नीचे उतारकर रखते हुए बोला, ‘हाँ दोस्त! तुम्हारी दुआ से बेटी फातिमा की शादी एक जगह तय हुई है| आज शाम मैं तुम्हारे घर, तुमको आमंत्रित करने जाने ही वाला था; अच्छा हुआ, तुम यहीं मिल गए| मैं अकेला आदमी, कहाँ-कहाँ जाऊँ| तुम तो मेरे यार हो, मेरी मजबूरी को समझते हुए, मेरा निमंत्रण स्वीकार कर शादी में जरूर आना| शादी अगले महीने की दश तारीख को है, तुमको आना है|’
विगतराम आत्मीयता के साथ कहा, ‘शर्त कठिन है, मगर मंजूर है|’
विगतराम, 10 तारीख को ठीक आठ बजे सलीम के घर पहुँचा| वहाँ पहुँचकर उसने देखा, ‘सलीम की दरिद्रता, घर के कोने-कोने में बैठकर छाती पीट रही है| आँगन में गाँव के ही कुछ लोग, सब्जी और पूरियाँ बारातियों के लिये तैयार कर रहे हैं| दरवाजे पर एक पेट्रोमैक्स जल रहा है| विगतराम, आँगन में जाकर सलीम से मिला, और कहा, ‘सलीम! कोई काम मेरे लायक हो, तो बताना?’
सलीम, मुस्कुराते हुए बोला, ‘मेरे दोस्त, अपनी जरूरत तुमसे न बताकर किससे बताऊँगा! तुम्हारे सिवा मेरा और है कौन; अपने तो सभी छूट गये हैं| जो नहीं छूटे, वो कल छोड़ने ही वाले हैं|’
विगतराम, दोनों हाथ उठाकर सजल नेत्रों से आकाश की ओर देखा और कहा, ‘अल्ला! हम अपनी बच्ची को तुम्हारे संरक्षण में भेज रहे हैं, तुम उसका ख्याल रखना|’
निकाह की दूसरी सुबह फातिमा विदा होकर सलीम के घर से, अपने पति के घर चली गई| कुछ महीने तो फातिमा का ससुराल वालों के साथ अच्छा बीता, मगर दो-तीन महीने बाद ही, कलह शुरू हो गया| फातिमा की सास बातों-बातों में कहती, ‘बड़े अरमान से तुम्हारे साथ अपने बेटे की शादी की, लेकिन सारे अरमान धरे रह गए| फातिमा जब कभी, पति कादिर के करीब जाने की कोशिश करती, तो वह अकड़कर वहाँ से चल देता| एक दिन तो हद ही हो गई; फातिमा के श्वसुर मोहम्मद इकबाल ने फूले हुए गालों में, धंसी हुई आँखें निकालकर, कहा, ‘बहू! अच्छी तरह सुन लो, जिस काँच के टुकड़े को मैं हीरा समझकर अपने घर लाया, उसके ह्रदय में ससुराल के लिए रत्ती भर भी स्थान नहीं| इस बात पर मुझे बहुत दुःख होता है|’
फातिमा, कातर भाव से पूछी, ‘अब्बाजान! मैं कुछ समझी नहीं?’
इकबाल, एक क्षण द्विविधा में पड़ा रहा, फिर बोला, ‘बहू! मुझे तुमसे कोई बैर नहीं मगर आश तो है| तुम मेरे घर आई, मुझे कौन सा धन मिल गया, उल्टा अपने बेटे के सर पर एक और बोझ चढ़ा दिया| पहले की तंगी क्या कम थी, जो और उसे एक चिंता चढ़ा दिया| कमानेवाला एक, खानेवाले पाँच; कैसे गुजारा होगा? बहू तुम ऐसा करो, एक बार तुम अपने पिता को यहाँ की परिस्थिति से, अवगत कराओ, शायद वे कुछ हल निकाल सकें!’
फातिमा, मन ही मन बुदबुदाकर बोली, ‘पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं अच्छा है| अपनी आत्मा को बेचकर आपके लिये धन ला सकूँ, जीने के लिये तब भी महँगा नहीं होगा|’ फातिमा, जो कि केवल अठारह साल की थी, उसे जीवन का अनुभव ही क्या था; ऐसे महत्त्व के विषय में पिता का ‘निश्चय’ ही उसके लिए मान्य था| वह सोचने लगी, जिस घर की खातिर मैंने अपने पिता का घर छोड़ा, आज यह घर मुझे नित पाश्चाताप का प्याला क्यों पिलाता है? नींद कोसों दूर हो गई; क्या मात्र कहने भर के लिये यह घर मेरा है?
फातिमा पाव फटते ही अपने श्वसुर का संदेश लेकर पिता के घर पहुँची| बेटी का अकेला आना देखकर सलीम डर गए| उन्होंने कंपित स्वर में पूछा, ‘बेटा! तुम अकेली, दामाद जी कहाँ हैं?’
फातिमा कुछ न बोलकर, सत्यता और दीनता की मूर्ति बनी, आँखों में आँसू लिये चुपचाप खड़ी रही, मानो किसी ने उसकी ह्त्या कर दी हो| फिर धीरे से बोली, ‘अब्बू! वे नहीं आये हैं, वे और उनके माता-पिता, सबों ने मुझसे कहा है, ‘तुम तब तक यहाँ लौटकर नहीं आना, जब तक पचास हजार रुपये का इंतजाम, तुम्हारा अब्बू न कर दे! मैं आई नहीं, मुझे घर से निकाला गया है| ‘
बेटी की बात सुनकर सलीम का गला भर आया, और अश्रु-जल बह निकला; रोते हुए कहा, ‘मेरे होते तुम चिंता मत करो, मैं जल्द ही कुछ करूँगा|’
एक दिन किसी काम के सिलसिले में घूमता-घूमता विगतराम, सलीम के घर आ पहुँचा| वहाँ पहुँचकर उसने देखा, ‘एक चटाई पर गाँव का मुखिया और एक नम्बरदार बैठा, सलीम से कुछ बतिया रहा है, और सलीम एक मैली-फटी पोटली से कुछ कागजात निकालकर उसे दिखा रहा है| आँखें सूजी हुई हैं, मगर मुखिया की आँखें विकसित हैं और नम्बरदार फूला नहीं समा रहा है| विगतराम को शंका हुई, वह दौड़कर सलीम को गले लगा लिया और अभिमानमय उल्लास का सुख उठाते हुए उसे आँगन में लाया, पूछा, ‘मित्र! यह सब क्या हो रहा है?’
सलीम की बातों को सुनकर विगतराम की आँखें डबडबा आईं| उसने रोते हुए कहा, ‘मित्र! सब भाग्य-विडम्बना, तुमसे क्या छिपाऊँ, फातिमा का ससुराल से यहाँ लौटे हुए आज आठवां दिन है|’
विगतराम, सलीम की बातों से चौंक गया, पूछा, ‘क्यों, कोई तकलीफ| इस तरह अकस्मात आने का कारण; कुछ तो होगा?’
सलीम द्रवित हो बोला, ‘उन लोगों को पचास हजार रुपये चाहिए; कहते हैं, शादी के नाम पर तुम्हारे बाप ने मेरे बेटे को ठग लिया| जब तक पैसे का इंतजाम न हो जाय, तुम हमारे दरवाजे पर नहीं आना; तुम्हारे लिए यहाँ का दरवाजा बंद हो गया| तुम्हीं कहो, मैं इतने पैसे कहाँ से लाऊँ? मेहनत-मजदूरी कर पाई-पाई जो कुछ जमा किया था, शादी में सभी खर्च हो गए| अब तो एक घर के सिवा, मेरी जान बची हुई है, और तो कुछ है नहीं मेरे पास; ऐसे में तुम्हीं बताओ मित्र, जिस बेटी को मैंने अपना ह्रदय-रक्त पिला-पिलाकर बड़ा किया, आज अपना घर होते, उसका घर कैसे उजड़ने दूँ?’
विगतराम अफसोस जताते हुए कहा, ‘शादी में दामाद जी की बातों से तो मालूम होता था, धन्ना सेठ का बेटा हो| बाप की लाखों की संपत्ति, बाप के पाँव के नीचे से गंगा बनकर बह रही हो| ऐसा आदमी, बहू को निचोड़ रहा है| लानत है, थूकता हूँ, मैं ऐसे परिवार पर|’
विगतराम सहसा खड़ा हो गया, और सलीम से कहा, ‘मित्र! तुमसे मेरी एक विनती है, तुम अपना घर मुझे लिख दो, मैं तुमको पचास हजार रुपये कल सुबह लाकर दूँगा|’
सलीम आँखों में आँसू भरकर अचंभित हो बोला, ‘तुम मेरा घर खरीदोगे?’
विगतराम ठनककर कहा, ‘हाँ, तुमने ठीक सुना; तुमको घर बेचने से है; कौन खरीदा, इससे क्या मतलब?’
सलीम की आँखें डबडबा आईं, बोला, ‘ठीक है, ये लो घर के सारे कागजात’, और मन ही मन कहा, ‘आज के बाद, मैं और मेरे मित्र के बीच खुदा को भी नहीं आने दूँगा|’
सलीम के घर के सारे कागजात लेकर विगतराम मुखिया के घर पहुँचा, कहा, ‘मुखिया जी! आप मेरे मित्र सलीम का घर खरीदना चाह रहे थे; वो तो मेरे पास बेच दिया, लेकिन मैं अपना घर आपके पास बेचने आया हूँ, उसे खरीदकर मेरे मित्र सलीम पर दया कीजिये|’
मुखिया क्रोधित हो पूछा, ‘वो कैसे?’
विगतराम हाथ जोड़कर, व्यथित स्वर में कहा, ‘सलीम के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बिना घर के उसे कैसे पालेगा? मेरे तो कोई नहीं हैं, न आगे नाथ, न पीछे पगहा’, मैं कहीं भी रह लूँगा| यूँ कहिये, जहाँ बैठ जाऊँगा, वही मेरा घर होगा|’
ईश्वर की दया से मुखिया के मन में, विगतराम की बात बैठ गई, और उसने 50000/-पचास हजार रुपये देकर घर के कागजात रख लिये| दूसरे सुबह, विगतराम हलसता हुआ सलीम के घर पहुँचा|
रुपये की गठरी थमाते हुए कहा, ‘गिन लो दोस्त, पूरे पचास हजार हैं, और आज ही फातिमा को उसके ससुराल भेज दो|’
सलीम टूटी निगाह से विगतराम की ओर देखकर पूछा, ‘मित्र! ये पैसे तुम कहाँ से लाये?’
विगतराम मुस्कुराकर कहा, ‘इन सब बातों को छोड़ो, और हाँ, ये लो, तुम अपने घर के कागजात|’
सलीम, भौचक्का होकर पूछा, ‘मेरे घर के कागजात तुम लौटा क्यों रहे हो?’
विगतराम, ‘मित्र! मैं अकेला आदमी हूँ, मैं घर रखकर क्या करूँगा? सो मैंने अपना घर बेच दिया| अब यह मत पूछना, ऐसा मैंने क्यों किया? मेरे मित्र का घर बच गया, और बेटी का घर बस गया|’ क्या है न यह मेरे लिये गर्व की बात, तभी तो मैं कहता हूँ, ‘‘ मुझे अपनी गरीबी पर गर्व है|”
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