Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नहीं, तो मेरा क्या कसूर है

 

जो  तुमको  अपने  दिले– दुश्मन  की महफ़िल  में 

रात  ठहरना  कबूल  नहीं, तो  मेरा  क्या कसूर है


दुनिया  में  चलन  है, चार  दिन  की आशनाई का

ठहरे-ठहरे  चल  दिये,  दुनिया  का पुराना दस्तूर है


रिश्ता-ए-वफ़ा  का  ख्याल  रखता  कोई  नहीं  यहाँ

जब  आती  खिजां, शज़र  से  पत्ते  भागते  दूर हैं


तुमने  जहाँ  भी  हमको  तन्हा पाया, जान से मारा

जख्म भर गया,जो लहू न बहा तो मेरा क्या कसूर है


हम  तो  सर  पे –बारे –मुहब्बत  को लिये घूमते रहे

न  मिली फ़ुर्सत सर उठाने की,तो मेरा क्या कसूर है

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