नज़र की चाह रूकती है नज़र से
कौन कहे जाकर , उस बेखबर से
है बेकार की बातें , कहना कि
मैं मज़बूर हूँ अपने मुकद्दर से
आईने की तरह साफ़ है किस्मत, जो
दुश्मनी छोड़ , देखो दोस्ती की नज़र से
यही बात चाहा था उससे बताना मगर
खुलती कहाँ जुबां , उसके डर से
वरना कहे देता ,इश्क नहीं बुल के वश में
जो लड़ा रही हो आँख , जानवर से
जो देती साथ किस्मत,उठाकर नकाब उसका;मैं भी
देख लेता कुदरत का नज़ारा अपनी नज़र से
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