Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

निखिल देवों का देवता है कौन

 

निखिल देवों का देवता है कौन


दिल को मिलता नहीं चैन दिन - रात 

मैं यही सोचती रहती  हूँ होकर मौन 

भव मानव का मिलन तीर्थ यह लोक 

जिसमें आते - जाते,  जीवन  मरण, तन में

शैशव  यौवन, जिसमें जगते दिशा काल

लय होते देव् परात्पर,सकल जग जीवन करता 

जिसका अराधन, उसको बनानेवाला है कौन 


कौन है इस जगती का पिता, निखिल देवों का देवता है कौन

कौन है वह अक्षय करुणा का सागर  जिसे पाने आशा-

आकांक्षा , मन में  करती संघर्ष जीवन  पर्यंत , यह नीलिमा

इतना निस्तल क्यों है, स्रोतस्विनी कलकलकर बहती है क्यों 

तरुगण लताओं से लिपटे रहते क्यों,   अंधकार को

छोड़कर कांति भागी जाती क्यों,  इस युग का कल्याण

कहाँ है, जिसकी बाहु दिशाओं-सी फैली है वो कामद है कौन 


कौन  है वह शिल्पी, जो निखिल चराचर को

अपने रंग  में रँगकर , खुद छुप गया  कहाँ

जिसकी महिमा गाते हिमवत्,सिंधु, नद जिसके 

वक्षोजों में रहता मंगल  कलश  बनकर घन 

दिवाकर की किरणें  आकाश को कौंधतीं क्यों

उलट गया जो दीप,उसे सीधा कर जलायेगा कौन 

मेरे इस  शंका-तिमिर को दूर  करेगा कौन

मैं यही सोचती रहती हूँ होकर मौन 



जो समझता है,   नभ के अंतर को खँगालना

ही मानव सभ्यता की प्रगति का शिखर है

बल  के अंधकार में भूले ,   जो अपने को अपना

ईश्वर समझता है ,   अपने दुर्धर  पदचापों  से धरा

नभ को कंपित करना चाहता है,उसे समझायेगा कौन 

पाल रहा शौक जो अपने अंतर में, वह आग है,उससे

तीनो लोक ध्वंस  हो जायेगा , उससे कहेगा कौन 


चाँद उमड़  रहा निविड़ गगन में , जब तक 

तभी तक सागर उमड़ रहा भुवन में, महानील से

कहीं वह तत्व गहन , जिससे नव जीवों का होता

सृजन,जो डोल रहा है,ऊपर लेकर धरती का अवलंबन 

अपनी ज्योति  को  छोड़कर  आसमां  में  ही कहीं 

गिर  न जाये  धरा  पर, भू  के गहरे अंधकार में

उसको कहेगा कौन , उसे समझायेगाकौन 


दिशाभ्रांत क्यों हो गए हैं हमारे विश्व  के नाविक

मनुज का हृदय रीति-नीति धर्मों से होता विस्तृत 

जो संस्कृति अहंकार  के तरु पर होता कवलित 

उसका  तन  नग्न और जीवन होता गृहरहित 

देवों की विभूति  से  मनुष्यत्व का पद्म खिला है

जो तारों के छाया ताप से बनता , सँवरताहै

यह लोक मिट जायेगा, कहेगा कौन 











इसे कौन समझायेगा , क्षितिज की ओर जो बढ रहे हैं

तुम्हारे नापाक कदम इन्हें यहीं रोक लो तो अच्छा है

अंतर नभ से शाश्वत लेकर नित आते सूरज  चाँद

हमारे अधरों को रँगने, उषा  आती ज्योत्सना , ओस से 

नहलाने , जिससे  कि  मानव  मन  के मरु में जीवन की 

हरियाली बनी  रहे हम  अपने  को जीवन का प्रतिनिधि 

कहते हैं , उसका ध्वंस महाकाल बनकर हम न करें तभी 

हम मृत आत्माओं का पूजक और जीवित आत्माओं का 

पूजक कहला सकते हैं,इनको कहेगा कौन,समझायेगा कौन

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ