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निर्गुण धारा के संत कवि रैदास

 

निर्गुण धारा के संत कवि रैदास



            कबीर के समकालीन रामानंद के शिष्य, रैदास का जन्म चर्मकार जाति में हुआ था | उनका आवास-संस्थान काशी के आस-पास ही कहीं था, जिसका सठीक विवरण नहीं मिलता है | अपने संबंध में संत रैदास का कथन है ----------


जाति  भी ओछी करम भी ओछा 

         ओछा कसब   हमारा 

उपेक्षित वर्ग के होने के बावजूद , वे इतने आचार से रहते थे, कि उन्हें विप्र भी दंडवत करते थे  |  कबीर और  रैदास , दोनों ही अपना गुरु रामानंद को मानते थे |  रैदास ने अपनी जातीय जीविका का कभी त्याग नहीं किया, मृत्यु पर्यन्त बनाये रखा | वे गृहस्थ जीवन बिताते हुए भी भक्ति में लीन रहा करतेथे | कबीर और रैदास , दोनों का ही व्यक्तित्व बड़ा ही महत्वपूर्ण था |  इनदोनों के पुर्व गोरखनाथ को छोड़कर , कोई महात्मा इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ | कबीर की भाँति , रैदास का ज्ञान सत्यानुभव से प्राप्त हुआ था , पुस्तक पढ़करनहीं | सत्यानुभव से वे अध्यात्म पथ पर बढे ; उन्होंने राम-गोविन्द का गुणगाकर अपनी भक्ति प्रकट की | 

          रैदास की भक्ति उनकी बड़ी ही सरल भाषा में व्यक्त हुई है | वे भी कबीर की तरह किसी भी कटुक्ति पर व्यंग्य नहीं करते थे | वे केवल अपनी अभिव्यक्ति की चिंता लिए रहते थे | वे भी वैष्णव रस ‘पिया’ की बात , कबीर की ही पद्धति पर करते थे | प्रेम की पीड़ा क्या होती है, कबीर की तरह रैदास भी करते हैं | उदाहरण के लिए , एक विरहिणी के रूप में उनकी पीड़ा का चित्रण इन पंक्तियों से उद्धृत होता है  ---------

                    मै  वेदनी  कासनि  आँसू  ,

हरि विन जिव न रहै कास राखूँ 

जीवतरसै  ल्यों  आसरू तेरा 

                    करहुँ  संभाल न सुर मुनि मेरा 

                    विरह  तपै  तन अधिक ज़रावै

                    नींद  न आवै , भोज न भावै


          संत रैदास अपने मन को हरि की पाठशाला में पढ़ाना चाहते हैं | प्रेम की पाटी पर सुरति की लेखनी से ‘र’ और ‘म’ को अंकित कर गुरु को दिखलाना चाहते हैं | लिखते हैं -------

                     ‘मोहि अन्य पढ़न  सौ कौन काज ‘ ; 

ठीक यही बात संत कबीर भी कहते हैं | रैदास ( रविदास ) ने राम – गोविंद का गुण गाकर अपनी भक्ति प्रकट की | उनके पदों में बड़ी ही सरल भाषा व्यवहृत हुई है | इससे साफ़ पता चलता है कि रामानंद के उपदेश में मुख्य तीन तत्व प्रमुख थे :----- (i) वैष्णव में प्रेम तत्व का मिश्रण (ii) दाम्पत्य भाव और (iii) जाति-पाति को महत्त्व न देना |

           रैदास की कोई रचना ग्रन्थाकार नहीं मिलती ; वाणियों का संग्रह –मात्र मिलता है | रैदास के महत्त्व को मीरावाई , नाभादास और प्रिया दास ने भी माना है ; दोनों हो संतों की संत-समाज में प्रतिष्ठा एवं लोकमान्यता , इस बात को बताती है | हिन्दू समाज थोड़ी संकीर्ण है ,पर अध्यात्म की भूमि पर वह पर्याप्त उदार है | हिन्दू सदा ही संतों-महात्माओं का आदर-सत्कार करता आया है , उनके आध्यात्मिक जीवन को महत्त्व देता है, न कि जाति अथवा मूल की ; इससे यह प्रमाण होता है कि हिन्दू-समाज में जाति-हीनता का कलंक धुल रहा था | 

                कबीर , रामानन्द के विधिवत शिष्य थे या नहीं , पर उन्होंने अपना गुरु , रामानन्द को माना ; मगर रैदास, रामानंद के विधिवत शिष्य थे | कबीर ने तो रामानन्द का चरण पड़कर उन्हें गुरु मान लिया था | रामानंद ने संस्कृत में पुस्तकें लिखीं , पर उनके कुछ पद हिंदी में भी मिलते हैं | जो भाषा और काव्य, दोनों ही दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं हैं , पर रामानन्द के शिष्यों ने देशभाषा में उपदेश देकर उसे समृद्ध बनाया | इन शिष्यों में कबीर , यशस्वी संत हुए ; दूसरा स्थान रैदास का है, उसके बाद पीपा का है | 

                मध्ययुगीन संतों में प्रसिद्ध रैदास के जन्म के संबंध में प्रमाणिक जानकारी कुछ नहीं है | कुछ विद्वानों का मानना है कि इनका जन्म 1482 – 1527 के बीच है | उनके पिता का नाम ‘रग्घु’ और माता का नाम ‘ घुरविनिया’ बताया जाता है | प्रिया दास द्वारा कृत ‘भक्तमाल’ में रैदास के स्वभाव और उनकी चारित्रिक उच्चता की झलक मिलती है | प्रिया दास के अनुसार , चित्तौर की ‘झालारानी’ रैदास की शिष्या थी , जो महाराणा संगा की पत्नी थी | इस दृष्टि से संत रैदास का जन्म विक्रम सं० 1539—1584 वि० अर्थात विक्रम की सोलहवीं सदीके अंत तक चला जाता है | कुछ लोगों का मानना है, कि चित्तौड़ की  रानी ‘मीरावाई’ ही रैदास की शिष्या थी , जो मीरावाई द्वारा रचित पदों से जाहिर होता है | उन्होंने गुरु रैदास के स्मरण में लिखा है ----

                     ‘ गुरु रैदास मिले मोहि , धुर से कलम भिड़ी 

                       सैट  गुरु सैन दई जब आगे जोत रली ||’


व्यक्तित्व 

              रैदास के समय में स्वामी रामानंद काशी के एक प्रतिष्ठित संत थे | उनकी शिष्य मंडली में रैदास का एक सम्मान जनक स्थान था | वे स्वभाव से दयालु और परोपकारी व्यक्ति थे | वे साधू-संतों को विना मूल्य , जुते-चप्पल भेंट में दिया करते थे | जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था , जिसे उन्होंने सहर्ष अपनाया ही नहीं , पूरी लगन और इमानदारी से किया करते थे | मुफ्त में जूत–चप्पल संतों में बाँटने के कारण , उनके माता-पिता उनसे काफी नाराज रहा करते थे | एक दिन तो, उन्हें  उनकी पत्नी के साथ उनके माता-पिटा ने खुद से अलग कर दिया | रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक झोपड़ा बनाकर रहने लगे | फुर्सत के वक्त वे ईश्वर –भजन ; साधू-संतों के सत्संग में व्यतीत करते थे | उनके बारे में कहा जाता है कि , वे अनपढ़ थे, किन्तु संत-साहित्य के ग्रंथों और गुरु-ग्रन्थ साहब में उनके पद पाए जाते हैं | एक बार एक पर्व के अवसर पर आस-पड़ोस के लोग उनको गंगा-स्नान करने जाने के लिए आग्रह करने लगे, तब रैदास बोले--- गंगा-स्नान मैं अवश्य चला जाता, किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दिया है; यदि मैं जूते नहीं दे सका , तो वचन-भंग होगा | गंगा-स्नान जाने पर मन यहीं लगा रहेगा , तब पुण्य कैसे मिलेगा ? हमें वही काम करना चाहिए जिसे मन करने के लिए अंत:करण से तैयार हो | मन सही हो तो कठौती में भी गंगा-स्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है | कहते हैं , इसके बाद से ही कहावत प्रचलित हुई ---- ‘ मन चंगा, तो कठौती में गंगा ‘ |

                भक्त रैदास की रचनाएँ दिल को छूने वाली, बड़ी ही हृदयस्पर्शी होती थी और वे अपनी रचनाओं को मित्र-मंडली में भाव विभोर होकर गाते थे | उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण , करीम सभी एक परमेश्वर के नाम हैं | ज्यों वेद , पुराण, कुरान सभी ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का आह्वान है ; अपने भजन में उन्होंने कहा है ----

                 ‘ कह रैदास तेरी भगति दूरि है , भाग बड़े सो पावे |

तजि अभिमान मेटि आपा पर ,पिपिलक हवै चुनि खावै ||’

            आशय यही है कि, ईश्वर भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है | जिसके पास अभिमान नहीं है, वही व्यक्ति जीवन में सफल रहता है | संत रैदास , बचपन से ही सत्संग में रूचि लिया करते थे | राम-जानकी की मूर्ति बनाकर पूजन करने लगे थे | एक दिन किसी संत ने उन्हें पारस पत्थर दिया और उसका उपयोग बताया | पहले तो संत रैदास उसे लेना अस्वीकार कर दिए मगर जब बहुत आग्रह किया गया , तो उनहोंने उसे छप्पड़ में खोंस देने के लिए कहा | 13 दिन बाद लौटकर जब वह साधु आया और पत्थर के बारे में पूछा , तो संत रैदास ने बताया ---- जहाँ रखा था, वहीँ होगा | साधु ने जाकर देखा तो उसे उसी तरह रखा मिला , जैसा कि उसने रखा था |

उनका कहना था---- ईश्वर नित्य ,निराकार तथा सब के भीतर विद्यमान है | इस सत्य का अनुभव करने के लिए संसार के प्रति अनासक्त होना होगा , क्योंकि भक्ति और अहंकार एक साथ संभव नहीं है |

             कबीर और रैदास की ‘वाणी’ में हम हिंदी –क्षेत्र की अशिक्षित जनता की भाषा पाते हैं | कबीर जुलाह और रैदास चमार; एक मुस्लिम समाज के निचले स्तर पर हैं ,और हिंदू समाज के दोनों ही उपेक्षित वर्ग के हैं | दोनों ही एक गुरु से प्रभावित हैं, और दोनों की परिस्थितियाँ भी एक जैसी हैं | दोनों ने अपनी जातीय जीविका का त्याग नहीं किया | गृहस्थ जीवन यापन करते हुए दोनों ही भक्ति में लीन रहे | इधर वर्णाश्रम मानने वाले समाज के नेता, उपदेशक के रूप में इन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं थे | जुलाहा, चमार, नाई , दरजी, बनियाँ जाति के संतों को उपदेशक के रूप में देखकर वर्णाश्रम की मर्यादा के पोषक पंडितों , और ब्राह्मणों के कान खड़े हुए | पहले तो उन्होंने इस प्रवाह को रोकने की कोशिश की ; बाद इसके विरुद्ध प्रचार करने लगे | कुछ समय के भीतर ही ब्राह्मणवाद की प्रभुता के सामने साहस पूर्वक अपने अस्तित्व की घोषणा करने में सक्षम हो गए | रैदास ने मानवता की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया | वे इस्लाम के लिए भी आस्था का सामान भाव रखते थे |

             वर्णाश्रम धर्म को समूल नष्ट करने का संकल्प , कुल और जाति की मिथ्या सिद्धि , संत रैदास द्वारा अपनाए गए समन्वयवादी मानव धर्म का ही एक अंग है | उन्होंने ही मानवतावादी समाज के रूप में संकल्पित किया था ------

              ‘ जन्म   जात न  पूछो , का  जात अरु पात 

                रविदास पूत सम , प्रभु के कोउ नाहिं जात-कुणात |’

उनके भजनों से लोगों को, अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्ति होत़ा था  | यही कारण है,  कि लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे | चित्तौड़ की महारानी मीरावाई उनकी भक्ति-भावना से इस कदर प्रभावित हुई , कि उन्होंने संत रैदास को अपना गुरु मानकर , खुद उनकी शिष्या बन गई |

        संत रैदास के, कुटुम्ब के लोग ( जैसा कि उन्होंने लिखा है ) ढोर डोकर अपनी जीविका चलाते थे ; पर चमार जाति के होने के बावजूद वे इतने आचार से रहते थे , कि उन्हें ब्राह्मण भी दण्डवत करते थे | नाभादास ने उनकी ‘वाणी’ को ‘संदेह-ग्रंथिखंडन –निपुण’ कहा है और उनके सदाचार तथा वचन को श्रुति –शास्त्र –वचन से अविरुद्ध कहा है | उनकी भक्ति के पद बहुत ही सरल थे | ऐसी भाषा वही लिख सकते थे, जिनका मन पूरी तरह निर्मल हो चुका हो |

              संत रैदास के बारे में कहा जाता है --- वे अनपढ़ थे | मगर उनकी रचनाएँ , उपदेश , आदि आज भी समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं | उन्होंने अपने आचार-व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिए कि आदमी महान जाति तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता, बल्कि उनके विचारों की श्रेष्ठता , समाज हित की भावना से प्रेरित कार्य, तथा सद्व्यवहार उन्हें महान बनाता है | गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी रैदास उच्च कोटि के संत थे | उन्होंने ज्ञान भक्ति का ऊँचा पद प्राप्त किया , मगर उनकी साधना-पद्धति का क्रमिक विवेचन नहीं मिलता  | कबीर ने संतनि में रैदास को संत कहकर उनके महत्त्व को स्वीकार किया | इसके अतिरिक्त नाभादास , प्रियादास , मीरावाई आदि ने भी रैदास का ससम्मान स्मरण किया है | संत रैदास ने एक पंथ भी चलाया, जो रैदासी पंथ के नाम से प्रचलित है | इस पंथ के अनुयायी पंजाब, गुजरात , उत्तर प्रदेश में अधिक पाए जाते हैं | 

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