Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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निशा

 

निशा


                वही गोधूलि वेला और वही साहिबा झील, जहाँ रोशनी के साथ बैठकर, देवव्रत जब अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना करता था, जिंदगी उसकी वनलता की तरह खिल उठती थी । उदास भाल, सौभाग्य चिन्ह की तरह चमक उठता था । नीरव मन ,सौंदर्य से आलोकित हो जाता था और दिल , झील की निस्तब्धता को भंग करने निर्झर की तरह कलरव करने लगता था ।

            आज उसी दिल से वेदना की तान सुनाई पड़ती है । उसे लगता है कि नियति ने उसके दिल पर एक बोझ लाद दी है । उस बोझ को ,अब उसे चिरकाल उठाये चलना होगा । अपनी ही चिंता के अंधकार की गहराई में डूबा वह, उसकी थाह लेने की कोशिश कर रहा था कि तभी किसी ने अकस्मात उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया । देवव्रत सिहर उठा, उसके सर से पाँव तक ,भय का संचार हो गया । उसने हिम्मत कर, उस हाथ को हटाते हुए हुए कंपित स्वर में पूछा--- ’ तुम कौन हो ? इस निर्जन जगह पर तुम मुझसे मिलने क्यों आई ? तुम्हारा नाम क्या है ?’

अवहेलना में मुस्कुराती हुई वह बोली---’ मेरा नाम निशा है । मैं तुम्हारा विश्वस्त अनुचर हूँ ।’

देवव्रत कर्कश कंठ से पूछा – ’ क्या निशा ? तुम यहाँ क्यों आई ?’

निशा, दीर्घ साँस फ़ेंककर बोली --- नये तरह की जिंदगी कैसे जीई जाती है, मैं तुमको बताने आई हूँ ।’

निशा की बातें सुनकर देवव्रत के मुँह पर भय और रोष की रेखाएँ नाचने लगीं । उसने निशा से कुछ कहने की अनुमति माँगते हुए बोला--- ’मेरा हृदय तुम्हारे तीव्र भावों से भर गया , मैं बहुत चिंतित हूँ । तुम मेरी भावोन्माद की अनुचरी तो बन सकती हो , लेकिन जीवन-संगिनी नहीं बन सकती , क्योंकि रोशनी मुझसे रूठकर कुछ दिनों के लिए चली गई है, मगर सदा के लिए नहीं ।’


निशा, प्रलयभरी आँखों से देवव्रत की ओर देखती हुई बोली---’ मैं जानती हूँ , तुमको मेरे साथ रहने का अनुभव नहीं है , लेकिन  धीरे-धीरे रहने की आदत पड़ जायगी ।’

देवव्रत चिल्लाता हुआ कहा --- ’ तुम्हारे आने की आहट  पाकर, रोशनी चली गई ; तुम कोई भुजंगिनी हो क्या ?’

निशा मुस्कुराती हुई बोली --- ’तुम बड़े डरपोक हो ? तुममें तनिक भी साहसिक जीवन जीने का उत्साह नहीं है । जैसे एक रोगी को पथ्य की आदत पड़ जाती है, वही हाल तुम्हारा है । तुमको भी रोशनी की आदत पड़ गई है ।’

देवव्रत अपने भवों का पानी पोछते हुए कहा --- ’पथ्य खानेवाला मनुष्य घर में बैठा रहता है, लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ । मैं जीऊँगा, तो रोशनी के साथ, मुझे किसी की परवाह नहीं । मैं सारे कुल की मर्यादा तोड़ दूँगा; अगर ऐसा नहीं कर सका, तब गंगा में डूब मरूँगा । आत्महत्या के लिए भगवान चाहे मुझे सौ बार नरक दे, मेरे लिए रोशनी के बिना यह प्राण तुच्छ है । मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता । तुम्हारे साथ तो मुझे अपने चारो ओर राशि-राशि विडंबनाएँ घिरी दिखाई पड़ती हैं । दया कर तुम चली जाओ ।’

निशा ,देवव्रत की बात काटती हुई बोली---’ तुम कहो और मैं चली जाऊँ, यह नहीं हो सकता । बनाने वाले ने मुझमें इतना उदार दिल नहीं भरा, न ही विचारशील ही बनाया । मैं जरूरतमंद के प्रति अपना जो कर्तव्य उचित समझती हूँ, वही करती हूँ । बावजूद कोई मुझसे चले जाने की भिक्षा माँगे , तो मैं क्या कर सकती हूँ ?’

देवव्रत के मन की सारी स्मृतियाँ, जो उसने रोशनी के साथ बिताई थीं, उसकी आँखों के आगे वृक्षों की तरह दौड़ी चली आ रही थीं, और उन्हीं के साथ उसका बचपन भी दौड़ा चला आ रहा था । लेकिन देवव्रत , इन दोनों से आगे न निकल सका; वहीं खड़ा , निशा का हाथ पकड़कर , अपने रमणी-हृदय का दृश्य देखता रहा । 

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