निशा
वही गोधूलि वेला और वही साहिबा झील, जहाँ रोशनी के साथ बैठकर, देवव्रत जब अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना करता था, जिंदगी उसकी वनलता की तरह खिल उठती थी । उदास भाल, सौभाग्य चिन्ह की तरह चमक उठता था । नीरव मन ,सौंदर्य से आलोकित हो जाता था और दिल , झील की निस्तब्धता को भंग करने निर्झर की तरह कलरव करने लगता था ।
आज उसी दिल से वेदना की तान सुनाई पड़ती है । उसे लगता है कि नियति ने उसके दिल पर एक बोझ लाद दी है । उस बोझ को ,अब उसे चिरकाल उठाये चलना होगा । अपनी ही चिंता के अंधकार की गहराई में डूबा वह, उसकी थाह लेने की कोशिश कर रहा था कि तभी किसी ने अकस्मात उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया । देवव्रत सिहर उठा, उसके सर से पाँव तक ,भय का संचार हो गया । उसने हिम्मत कर, उस हाथ को हटाते हुए हुए कंपित स्वर में पूछा--- ’ तुम कौन हो ? इस निर्जन जगह पर तुम मुझसे मिलने क्यों आई ? तुम्हारा नाम क्या है ?’
अवहेलना में मुस्कुराती हुई वह बोली---’ मेरा नाम निशा है । मैं तुम्हारा विश्वस्त अनुचर हूँ ।’
देवव्रत कर्कश कंठ से पूछा – ’ क्या निशा ? तुम यहाँ क्यों आई ?’
निशा, दीर्घ साँस फ़ेंककर बोली --- नये तरह की जिंदगी कैसे जीई जाती है, मैं तुमको बताने आई हूँ ।’
निशा की बातें सुनकर देवव्रत के मुँह पर भय और रोष की रेखाएँ नाचने लगीं । उसने निशा से कुछ कहने की अनुमति माँगते हुए बोला--- ’मेरा हृदय तुम्हारे तीव्र भावों से भर गया , मैं बहुत चिंतित हूँ । तुम मेरी भावोन्माद की अनुचरी तो बन सकती हो , लेकिन जीवन-संगिनी नहीं बन सकती , क्योंकि रोशनी मुझसे रूठकर कुछ दिनों के लिए चली गई है, मगर सदा के लिए नहीं ।’
निशा, प्रलयभरी आँखों से देवव्रत की ओर देखती हुई बोली---’ मैं जानती हूँ , तुमको मेरे साथ रहने का अनुभव नहीं है , लेकिन धीरे-धीरे रहने की आदत पड़ जायगी ।’
देवव्रत चिल्लाता हुआ कहा --- ’ तुम्हारे आने की आहट पाकर, रोशनी चली गई ; तुम कोई भुजंगिनी हो क्या ?’
निशा मुस्कुराती हुई बोली --- ’तुम बड़े डरपोक हो ? तुममें तनिक भी साहसिक जीवन जीने का उत्साह नहीं है । जैसे एक रोगी को पथ्य की आदत पड़ जाती है, वही हाल तुम्हारा है । तुमको भी रोशनी की आदत पड़ गई है ।’
देवव्रत अपने भवों का पानी पोछते हुए कहा --- ’पथ्य खानेवाला मनुष्य घर में बैठा रहता है, लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ । मैं जीऊँगा, तो रोशनी के साथ, मुझे किसी की परवाह नहीं । मैं सारे कुल की मर्यादा तोड़ दूँगा; अगर ऐसा नहीं कर सका, तब गंगा में डूब मरूँगा । आत्महत्या के लिए भगवान चाहे मुझे सौ बार नरक दे, मेरे लिए रोशनी के बिना यह प्राण तुच्छ है । मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता । तुम्हारे साथ तो मुझे अपने चारो ओर राशि-राशि विडंबनाएँ घिरी दिखाई पड़ती हैं । दया कर तुम चली जाओ ।’
निशा ,देवव्रत की बात काटती हुई बोली---’ तुम कहो और मैं चली जाऊँ, यह नहीं हो सकता । बनाने वाले ने मुझमें इतना उदार दिल नहीं भरा, न ही विचारशील ही बनाया । मैं जरूरतमंद के प्रति अपना जो कर्तव्य उचित समझती हूँ, वही करती हूँ । बावजूद कोई मुझसे चले जाने की भिक्षा माँगे , तो मैं क्या कर सकती हूँ ?’
देवव्रत के मन की सारी स्मृतियाँ, जो उसने रोशनी के साथ बिताई थीं, उसकी आँखों के आगे वृक्षों की तरह दौड़ी चली आ रही थीं, और उन्हीं के साथ उसका बचपन भी दौड़ा चला आ रहा था । लेकिन देवव्रत , इन दोनों से आगे न निकल सका; वहीं खड़ा , निशा का हाथ पकड़कर , अपने रमणी-हृदय का दृश्य देखता रहा ।
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