Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नित देखता हूँ फिर भी प्राण नहीं अघाता

 

नित देखता हूँ फिर भी प्राण नहीं अघाता




प्रिय !नित अपने यौवन की छवि से दीप्तकर

कामना की मूर्ति बनाकर तुम्हारा ,    तुमको

अपने हृदय सिंघासन पर बिठाता हूँ  ,फिर भी 

प्राण नहीं अघाता,   दीपक सदृश जलता  हूँ

तुमको  याद करते ही, मदिर उल्लास में फूला

हुआ वन याद आता है, कब डूबेगी प्यासमेरी 

इस  मधु अधरों  के रस में  अतृप्त आलोक - 

भिखारी  सा  मन  हृदय- प्राण से पूछता है


वाहित रुधिर मुझे शांति से जीने नहीं देता है

तुम्हारे रूप का रसमय निमंत्रण मुझे बुलाता है

मैं आकाश  की निस्सीमता में विकल विभ्रांत घूमता हूँ

तुमको बुलाता  हूँ मगर , मेरी आवाज शून्यता में गूँजकर

पुनः  मेरे  पास लौट आती है,  कहती है अग्निज्वाल 

से भी आगे  जलता है उल्लास ,  विषाद नदी  में बनी

तरी जो तुम्हारे  मन को आलोकित  है कर  रही,  वह्

तुम्हारी तीव्र प्रेरणा की धारा है,जो उत्साह और पीड़ा से है 

भरी  , वही तुम्हारी वाणी  में  पुकार बनकर  है जल  रही









भय मौन चुपचाप खड़ा, अंधकार के नील आवरण 

को  निहारता  हूँ, सोचताहूँ , जिसके लिए मैं अग्नि शिखा

सा धधक  रहा , जिसको  मैं अपने प्राण की लहर सेहूँ 

सींच रहा, आखिर उसमें है  क्या, जो दिन - रात उसकी 

यादों की स्मृति को,अपने भुज में समेटे,अपलक नयन से 

उसे निहारता रहता हूँ, शक्ति रहते निरुपाय दीखता हूँ


यह सघन हरियाली कैसी है जिसकी छाया में विश्राम 

करनेअपने अंक में ज्वालामुखी समेटे तड़पता रहता हूँ

पिघले अनल धार  की  तरह बहता  रहता हूँ ,    मगर

करते  ही याद उसके मधुर  अधर का, शांति मेरी धुल 

जाती है, प्राण के पटल खुल जाते हैं, गई शक्तिलौटकर 

फिर से  तन  पर छा जाती है, जीवनलहराने लगता है

सौरभ भरा प्रसून- सा यौवनोत्फुल्ल हो जाता है 


श्री अनंत की गोद समान , धरा  सुंदर , स्वच्छ   , रमणीय 

लगने लगती है, शुष्क डालियों से वृक्षों की अग्नि अर्चियाँ 

समृद्धि हुई दीखती है, नव धूम गंध से नभ कानन,समृद्ध 

हो जाता है,नीरवता की गहराई  में उतरकर मन अकेले 

मग्न रहता है , हूदय अर्द्धरात्रि  के सागर तीरे समान शांत 

हो जाता है,दिन भर ज्वाला बरसाने वाला सूरज शांत लगने 

लगता है , जीवन का उर्मिल सागर उस पार जाकर हँसता है











क्या यही  है  प्रेम , वेदना, जो मनुज मन में सुख से सोता है

फिर विकल खिलखिलाती है क्यॉं इतनी हँसी, व्यर्थ बिखेड़कर 

क्यों कहती मनुज से, पहेली  - सा इस जीवन को तुम

सुलझाने का मत अभिमान कर, फूल और हँस रही सौरभ पर

इतना विश्वास न कर, कलरव से ही कोलाहल बनता, याद रख





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