ऊपर सुधाघट डलमल करता
पलकों परधर शीतल चुम्बन
साँसोंसे पोछ वेदना केकण
अमरस्पुट में ढला मानव
नित्य जीवन से परिचित होकर भी
जीवनक्या है, समझ न सका
हरक्षण क्षितिज को पार करने
लेकर विहग मन,नापता रहा गगन
सोचता रहा,ऊपर सुधाघट झलमल करता
नीचे धरा नरक में, रखा ही क्या
यहाँ लघु- लघु प्राणियों को, महामृत्यु
अपने वृहद पंखोंसे घेरेरखता
जीवन- मरण कायह खेल, मनुज
जीवन की बाजी समझ,खेलता रहता
यहजानते हुए भी, किहाड़-मांस
से बना यह जीवन, कच्ची माटी
केखिलौने के सिवा और कुछ नहीं होता
जो ठोकर लगते ही टूट, माटी में मिल जाता
फ़िर भी मनुज,सुख कण की छाया में रहने
जीवनपर्यंत मरीचिका में दौड़ता रहता
सोचता ,दो दिन की जिंदगी का कुछ पल
ही सही,फ़ूलों की छाया में बीते,तो हर्ज़ क्या
यहाँपग- पगपर प्रभंजन झड़ता
नामहीन एकाकी, अभिशापित विहग
हृदयव्योम चिल्लाता- मँडराता
हताश मनुज सोच,अभिलाषा रहेगी सदा
अपूर्ण, व्यथित हो,उत्तेजित हो उठता
मिले दुख सेजहाँ त्राण, वहाँ चलो
प्राण, निकल भागने की राह ढूँढ़ता
फ़ूल, दीप, रोली, अक्षत का थाल पड़ोसकर
मर्त्तदेवता के आगे हाथ जोड़कर कहता
हे देव ! बहुत जी लिया तुम्हारी दुनिया में
अबदया कर वह बल भर दो मुझमें,कि
मैं तोड़ भव बंधन,छोड़ पशुओं का जीवन
जासकूँ यहाँ से और नहीं जीना मुझको
यहाँ जनम से मरण तक दुख ही दुख रहता
मनुज शरीर फ़ूलों सा हँसकर झड़ जाता
जीवन-सुख है या पहेली,समझ में नहीं आता
इस इन्द्रजाल मेंन जाने, औरकितनी
व्यथा हमें है झेलनी, सोच शोणित, पानी
बन नयन से बाहर निकलने लगता
इसलिए हे ! चिर साध्वी नियति,तुम्हारे आगे
सम्मुख मनुज जीवन की व्यर्थसब युक्ति
अब तो, अपने तर्कों और वादों के
बंदीसिसक रहे, इस जीवन को दे दो मुक्ति
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