पंचानन का सपूत, मनुज
चेतनाकाविकसित आकार रूप ,मनुज
वासनाभरीसरिता के मदमत्त प्रवाह में
प्रलय जलधिका संगम , देख
रक्तकी उत्तप्त लहरोंकी परिधि के
पारभीऐसा कोईसत्य सुख है
छुपाहुआ , पानेकोललकउठा
कहा , अबसमझ में आया
वन की एकाकी मेंलता पुंज से मंडित
सुरपति के घरपहुँचकर भी, नियति का
दास मनुज ,जीवन भरपरेशान क्यों जीता
योगी कीसाधना, तपोनिष्ठ नर का तप
ग्यानी का ग्यान , गर्वीले काअभिमान
पिघलकर-पिघलकर पानी बन क्यों बह जाता
साँस भर- भरकर सौरभ पीने के बाद भी
हृदयकी दाह कम नहीं होती, दॄग से
अश्रु झड़ता,प्राण तड़पता,ध्यान सागर में
मन काउद्भ्रांत महोदधि लहराता
प्राणोंमें पुलक जगाकर, मन का दीप
बुझाकर, हृदय को तिमिराच्छन्न कर देता
जबकि पंचानन का सपूत, मनुज
यहभलीभाँतिजानता , हॄदय
सिन्धुमें खेल रही,जो पूर्णिमा की
परमोज्ज्वलतरंग,वह उसका अपना
नहीं ,वह तो किरणके तारों पर
झूलतीहुई, स्वर्ग से भू पर उतरी है
जोपूर्णमासी के खत्महोते ही
वापसअपने वास पर लौट जायेगी
पास रह जायेगा , धर्म-कर्म और निष्ठा
जब मृत्तिका अनलबुझ जायेगा
तब, यही दिलायेगा ,जग में हमें प्रतिष्ठा
इसलिये चाहत के उन पलकों में प्रवेश कर
हृदय के उस अग्यान देश में जाकर क्या
रहना,जहाँ रहती हृदय कम्पन की नीरवता
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