पंखहीन मनुज
मरण सेवित, घन घमंड उद्वेलित
धरा पर उतरने से पहले, मनुज
कहाँ सोचा था, वहाँ पहुँचकर
मन का विषाद लिये, पंखहीन
वृक्षपात सा, ऊपर की ओर
टकटकी लगाये खड़ा रहना होगा
वह तो सोचा था, मनुज जीवन का उद्देश्य
लक्ष्य की प्राप्ति होगी, जिसके लिये हमें
प्रगति दिशा की ओर, उड़ने पंख मिलेगा
ज्यों खग-वृंद पल में, अपना इंगित बदल
लेता, त्यों मैं भी, दुख अंधकार की आँधी
को विचरता देख, राह बदल दूँगा
जहाँ सपने खिलकर, साकार कुसुम हो जाते
जहाँ से पिछलकर गिरने के भय नहीं होते
कल्पना जहाँ पहुँच नहीं पाती, जहाँ
पहुँचकर यह भुवन, तुच्छ दिखाई पड़ता
वहाँ जाकर, वसंती वायु के मादक झकोरों
में रक्तलोचन श्वेत पारावत सा विचरूँगा
वहीं बैठकर, अनंत की अभंग चोटी पर
चन्द्रप्रभा की सुरभित छाया में, सुख से
आँखें मींचे, नभ से चू जा रही मकरंद को
अपनी अंजलि में भर-भर कर पीऊँगा
धरा पर बैठे हैं जो मानव, दुख-पीड़ा को
अपनी बॉँहों में समेटे, उन्हें भी धरा के
कालदंत से छुड़ाकर, यहाँ ले आऊँगा
मगर, अभागा पंचाग्नि में जल रहा मनुज
यह भूल गया, जब सूरज अंतर्धान होता
तब भूमि पर उसकी छाया तक नहीं रहती
ऐसे में वह कैसे धरा पर, दुरन्त
ज्वालाओं में जल रहे अपने बन्धुओं को
व्योम से परे क्षितिज के पार बुलायेगा
भड़क रहीं जो मन के उत्तप्त प्रांत में
ज्वालायें, उन्हें गीतों में कैसे ढालेगा
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