Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

परम्परा

 

समाज की कच्ची सोच और अंधविश्वास , जब पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदा रहने में कामयाब हो जाती है, तब यह परम्परा का रूप ले लेती है । इसमें इतनी ताकत होती है कि इसके आगे क्या बलवान क्या धनवान, सभी स्वयं को लाचार और विवश पाते हैं । इसे किनारा कर जीने की ताकत किसी के पास नहीं होती है, तभी तो, श्मशान श्मशान से जिंदा होकर आए इन्सान को हम अपने घर में रहने देने की बात तो दूर; घुसने तक की इजाजत नहीं देते हैं । इतना ही नहीं, विवाह से पूर्व जन्मे अपने ही संतान का पिता कहलाने से डरते हैं । समझ में नहीं आता, ऐसी कुरूप परम्परा से आदमी बंधा क्यों रहना चाहता है ? समाज के वहिष्कार से वह डरता है या इसे पाप समझकर , कहीं नरक में न जाऊँ, सोचकर दूर रहना चाहता है । कारण जो भी हो, इसका खामियाजा भुगतने के बावजूद भी हम इसे अब तक ढो रहे हैं । इसे बदलने की ताकत किसी में नहीं है ।
मैंने देखा है, जब मैं छात्रावास में रहकर विद्याध्ययन कर रही थी । वहाँ के कड़े नियमों को पालन करते हुए, शुरू- शुरू में तो काफ़ी कष्ट होता था; लेकिन बाद नियमों से बंधे रहना मन को भाने लगा था । शनिवार- रविवार मिलने का दिन हुआ करता था ; जब पिता, पति या भाई ( जिसका मिलने वालों में नाम दर्ज रहता था ), मिलने के लिए आते थे । हमलोग इस दिन की प्रतीक्षा सप्ताह के शुरू से ही करने लगते थे । जब मैं दशवीं कक्षा में पढ़ती थी, मेरी रूमेट थी, सुधा । बहुत शर्मीली और ईमानदार , पढ़ने-लिखने में उसका मुकाबला नहीं । अच्छे घराने से, किसी चीज की कमी नहीं; बावजूद उसकी आँखों में जब-तब पानी भर आता था और उसे दुपट्टे से पोछती हुई मुझे यह दिखलाने की कॊशिश करती थी,’ हुआ कुछ नहीं, बस यूँ ही पोछ लिया।’ ’लेकिन सच्चाई छुप नहीं सकती, बनावट के वसूलों स” । एक दिन मैंने उसके करीब जाकर अपनी कसम का वास्ता देते हुए पूछा,’ जब- तब तुम्हारी आँखों में आँसू क्यों भर आता है, तुम्हें क्या तकलीफ़ है ?’ पूछते ही सुधा बिलख उठी । मुझे पकड़कर खूब रोई । शायद दिल में जितने भी गम के आँसू को वह समेटे हुए जी रही थी, सभी को उस दिन निकालने का असफ़ल प्रयास प्रयास कर्ती हुई हुऎ जो कुछ बताई, सुनकर मैं दंग रह गई ।
उसने बताया--- तारा , मै आज तक तुमसे झूठ बोलती आई कि मैं अपने माँ-बाप की अकेली संतान हूँ । असल में हम दो भाई-बहन हैं । भाई छोटा है, जो कल मुझसे मिलने आ रहा है । मैं अवाक होती, बोली,’ तो इसमें रोने की क्या बात है ?
 
यह तो खुशी की बात है कि तुम्हारा भाई कल मिलने आएगा । मैं भी उससे मिलूँगी – अरे पगली ! तो तुम रोती क्यों हो ?’ वह मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोल पड़ी,’ इसी बात का तो दुख है, कि वह मिलने क्यों आ रहा है ? नहीं आता तो, मेरे और मेरे परिवार के लिए अच्छा था । गाँव वालों को अगर किसी तरह पता चला तो वे हमारे परिवार का वहिष्कार कर देंगे , फ़िर अकेला परिवार, हम कैसे जीयेंगे ।
         सुधा की ये उल्टी- सीधी  बातें, मुझे पहेली से भी अधिक उलझी लगने लगी । मैंने और कुछ आगे न पूछकर, जानना चाहा,’ क्या तुम्हारे गाँव के लोग, भाई –बहन का मिलना पसंद नहीं करते । ’ इस पर उसने जो कुछ बताया, सुनकर मेरे होश उड़ गये । उसने कहा,’ आज से आठ साल पहले, जब मेरा भाई पाँच साल का था, दरवाजे पर खेलते वक्त , एक विषैले नाग ने उसे डंस लिया ।’  मैं घबड़ाती हुई पूछी—’ फ़िर !’  उसने कहा,’ वह मर गया । शायद तुमको नहीं पता; मुझे भी इसके पहले पता नहीं था कि साँप के काटे को जलाया नहीं जाता । उसे केले के बेड़े पर सुलाकर नदी के धार पर ले जाकर छोड़ दिया जाता है । मेरे भाई के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ; उसे भी नदी में ले जाकर बहा दिया गया । ईश्वर का अनोखा खेल देखो; ठंढ़े पानी में रहते-रहते , वह  दो दिन बाद , नदी की धारा संग भसते हुआ जी उठा और बचाओ- बचाओ कर चिल्लाने लगा । किनारे पर एक पति- पत्नी स्नान करने के लिए नदी में उतरने ही वाले थे, कि उन्हें एक बच्चे के रोन्र कि आवाज सुनाई पड़ी । आती हुई आवाज की दिशा में उन्होंने देखा, तो उनके होश उड़ गये । पति ने आव देखा न ताव, नदी में छलांग लगा दिया । उस बच्चे को गोद मेम उठाकर  किनारे ले आया और अपने घर ले गया । उसे कपड़ा-खाना दिया, डाक्टर दिखाया । जब वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया, तब उसके बताये पते पर, दोनों पति-पत्नी मेरे घर आये और रोते हुए शुरू से अंत तक का वृतांत मेरे माता- पिता को  बताया । बेटा जिंदा है, सुनकर और माँ- बाप की तरह , मेरे माता – पिता भी खुशी से पागल हो उठे थे । पर तत्क्षण यह सोचकर कि समाज उसे यहाँ रहने नहीं देगा, मेरे माता- पिता मायूस हो गये । हाथ जोड़कर उस पति- पत्नी से विनती करने लगे, आपलोग यहाँ किस काम से आये हैं; कृपया गाँव में किसी और से नहीं बतायेंगे । हिन्दू परम्परा के अनुसार हम उसे अपने घर तो नहीं ला सकते, लेकिन हाँ, उसके भरण- पोषण , पढ़ाई- लिखाई के लिए जो भी पैसे लगेंगे, मैं आपको भेज दिया करूँगा । अब तो मेरा भाई तेरह साल का हो गया । यहीं पास के Boys’ Hostel में रहता है । उसकी – मेरी बात, फ़ोन पर हमेशा होती है । लेकिन हम मिल नहीं सकते ; कारण गाँव वालों को मिलने की बात अगर पता चल जाती है तो मेरे परिवार पर पहाड़ टूट पड़ेगा । ऐसा हो, मैं नहीं चाहती, पर उससे मिलने के लिए  दिन-रात तड़पती रहती हूँ । अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ ? उस अबोध से कैसे कहूँ, हमलोग भाई- बहन तो हैं, पर एक दूसरे से मिल नहीं सकते क्योंकि तुम मरकर ( मुख में आग पाने के बाद) जिंदा
 
 
हुआ है । हमारी हिन्दू परम्परा के अनुसार जिसकी मुखाग्नि हो जाय, उसके जिंदा होने के बावजूद हम उसे मरा मानेंगे । एक मरे आदमी को घर में नहीं रखा जा सकता और अगर कोई ऐसा करता है तो उसे समाज स्वीकार नहीं करती । इसलिए तुम मुझसे मिलने नहीं आना । सुधा की बातों में कितना दर्द था और कितनी मजबूरियाँ ; यह तो मैं नहीं जानती, मगर भाई से मिलने की लालसा जी में अवश्य थी ,इस बात को मैं नकार भी नहीं सकती ।
 तो फ़िर क्या, परम्परा इन दोनों भाई- बहन के बीच दीवार बन खड़ी है । हाँ , लगता तो ऐसा ही है । अगर यह सच है तो सुधा तोड़ क्यों नहीं देती ? समाज के आगे, हम इतने मजबूर क्यों हैं कि तोड़ना तो दूर, तोड़ने की बात भी नहीं कर सकते । धिक्कार है, ऐसी परम्परा को और ऐसे वसूल वाले माता – पिता, सगे- सबंधियों को, जो अपने होने का रोना तो रोते हैं, मगर अपनी सुविधानुसार ।

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ