पर्यावरण -------- डा० श्रीमती तारा सिंह , नवी मुम्बई
यह जन धरणी , मनुजों का स्वर्ग-घर बनी रहे
पत्ते- पत्तेपर श्यामद्युतिहरियाली छाई रहे
सृष्टि ने गगन से उतार,गंगा को धरा पर लाया
सोचा, इसकी शीतलता से दुष्काल अपने आप
दूरभागेगा, सुधावृक्ष उन्नतहोगा
मनुज मन के सहज वृत परग्य़ान जागेगा
तबमनुजको निजमंगल काबोध होगा
सुंदरसुखद सूर्यसेसेवितयह धराहोगी
इसके समक्ष प्राच्य सिंधु का मुक्ता तुच्छ होगा
बरसेगा रिमझिमकररंग अम्बरसे
मन-मन का स्वप्न मन से निकलकर भींगेगा
तब पथजोहती कूलपर वसुधादीन-दुखी
श्रांत, प्यासेअसुरासुरसेथकी नहीं होगी
हरतरफ़ , क्षीर कल्प, जलपूर्ण सर- सरित
अगरुसौरभ से भरितपवनहोगा
लेकिनमनुजों का विप्र,लोक जीवन के प्रतिनिधि
कोतरु पत्रों केअंतरालसे छन-छनकर
लोटरही भू रज पर किरणें, मन को नहीं भायीं
कहा, हम हैं लोक जीवन के भावी निर्माता
युगमानस घोरअंधविश्वास केकोहरे में
हैलिपटा हुआ, उसेयह नहींपता
युगजीवन कास्वर्णिमरूपांतरकैसे होगा
कैसेजीवन मन कीअतलगहनता का वैभव
सूक्ष्म प्रसारणों से मन को ज्योति चमत्कृत करेगा
इसके लिए हमेंभू कोपुन:स्थापित करना होगा
रौंदकर फ़ूलों की घाटी को, तोड़- मरोड़कर शोभा
पल्लवशाखाओं को ,धरा धूलि में मिलाना होगा
प्रकृतिसंगसंघर्षसीखना होगा
तृण तरु जो जकड़ा रहता,धरा मिट्टी को दैत्य–सा
जिससे घायल - दुखी , काँपतारहताभूतल
चित्कारेंगुंजतीदोहरीहोकर, फ़टता गिरि-अंबर
उसेअपनेप्रलय वेग से छिन्न - भिन्नकर
जीवनपथकोविस्तृत करनाहोगा
तभीपावन मोहित, निर्मित घाटियाँजोचिर
करुणा,ममताके स्वर्णिम प्रकाश से रहतीं वंचित
जहाँ सभ्यताअबतक नहीं पहुँच सकी, जहाँ
प्रकृतिकी निर्ममता बीहड़ बन,घुसकर रहती खड़ी
जिससे सतत बढ रही अंधियाली,उसे मिटाना होगा
यहीसोचकर मनुज मुट्ठी में अणु –संघार लिये
भावीकीआशंका से, विश्व –विनायक बन गया
कहा, झाँकरहीनवलरूपहली आशा, धरा को
इसमें ,प्रकृतिरचितफ़ूलोंको मुरझानेदो
पत्रों की मर्मर में झंकृत नहीं हो पाती,हृदय वीणा
का स्वर, यह विस्तृत कड़ी जगत –क्रम की
इससेसमृद्धिपरिणतिकदापि संभवनहीं
इस देवत्व , लोकोत्तरको मत बढने दो
आज धरा मनुज का जीवन,काल ध्वंस से है कवलित
तृष्णा के जीवन चक्की से इतना धुआँ निकलता रहा
नये सूरज कोलाने में चिमनीबनगयी धरती
होतातप्ताकाशशून्य, जीवन जलतामरु- सा
किरणोंमेंसप्त रंग फूल अबनहींहोते, कारण
यहाँ नसाँसलेतीअबकोई हरीतिमा, न ही
उसेचूमनेसागरकी लहरियाँ हीमचलतीं
मनुजकृतप्रेत–आत्माएँ अरण्य में रोदन करतीं
रिक्त ज्योति,महा मृत्यु बन वृहत पंख पसारे रहती
तृष्णाभट्ठी की ओदीआँच पर धुँधुवाती रहती
मिट्टीकायह नूतनपुतला, अल्हड़ अभिमानी
सुरपुर को बर्बादकर, वीरानों में जन्नत आबाद
करना चाहता, मगर उसे नहींपताअंधेरे में
केवलउन्मादकफूल खिलते, जिसे कल्पना का
मोहकसामानतोसौंपाजासकता , इससे
दग्ध, प्यासीलघुचाह नहींमिटती
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