Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पति –परमेश्वर

 

शादी कर, विदाई के बख्त, लल्ली जब अपने माँ-बाप के गले से लगकर. विलख-विलखकर रो रही थी, तब लल्ली के माता-पिता, उसे एक ही ढाढ़स के बोल बोले थे,’ बेटा चुप हो जाओ । मत रोओ; यह तो दुनिया का दस्तूर है, जो अनंतकाल से चला आ रहा है । हर बेटी को,एक दिन अपने माँ-बाप का घर छोड़कर अपने पति के घर जाना होता है । तुम जहाँ जा रही हो, वही तुम्हारा असल में, अपना घर है । हमारे घर तो तुम अतिथि थी और अतिथि को एक दिन घर छोड़कर जाना होता है । तुमको अपने से अलग करता हुआ ,मेरा मन भी कम दुखी नहीं है, लेकिन खुशी कहीं उससे अधिक है । ईश्वर ने इतना सुंदर, इतना पढ़ा- लिखा, दामाद जो मुझको दिया ; सुना है,वहाँ के लोग भी बहुत अच्छे हैं । वे लोग तुमको बहुत खुश रखेंगे । वस इसके लिए ,तुमको भी सेवा और प्यार से घर वालों का मन जीतना होगा । उन्हें अपना बनाना होगा । इसलिए बेटा, अब और मत रोओ, वरना तबीयत खराब हो सकती है । फ़िर वहाँ पहुँचकर तुमको, पति और अपना नया घर, दोनों को सँभालना है । पर हाँ, बेटा ! एक बात याद रखना, पति परमेश्वर होता है, कोई ऐसा व्यवहार नहीं करना, जिससे उनके दिल को ठेस पहुँचे । आज से तुम्हारा दुख और सुख , दोनों उनके हाथ है ; यूँ कहो, हमने जन्म दिया, मगर ईश्वर ने तुम्हारे तकदीर को सजाने-संवारने का जिम्मा तुम्हारे पति को दिया है । कोई उनका भगवान होगा, मगर तुम्हारा भगवान, तुम्हारे पति हैं । इसलिए, पति को परमेश्वर मानकर, उनको हमेशा खुश रखना । कभी दुखी मत होने देना । ख्याल रखना, जिस आँगन में तुम पालकी में बैठकर जा रही हो; उसी आँगन से तुम्हारी अर्थी की पालकी भी उठे, तभी एक औरत , कुलीन कहलाती है । तुम्हारे हाथों दोनों कुल की लाज है ,इसे सँभालकर रखना ।’
लल्ली ,रोती हुई कही थी,’ पिताजी ! आप के कहे शब्द-शब्द का पालन करूँगी ।’ सुनकर गंगादास की आँखों में अभिमान का पानी छलक आया था । लल्ली ,पति से पहली मिलन की रात , पिता के वचन को याद रखते हुए, मन ही मन प्रतिग्या ली,’ आज से तुम मेरे पति-परमेश्वर हो, तुम ही मेरे मान-सम्मान के रखवाले हो । तुम जब चाहो, मेरे मान-सम्मान को आहत कर सकते हो, मैं सारी जिंदगी , श्रद्धा और त्याग की मूरत, तुम्हारी सेवा करूँगी और तुम्हारे चरणों पर खुद को अर्पण कर दूँगी । भले ही ,मेरे अरमानों की चिता पर,तुम्हारे अरमान पूरे हों । मगर मैं कभी तुमसे अलग होकर नहीं जीऊँगी । जिस आँगन में मेरी आज डोली आई है, एक दिन अर्थी भी यहीं से उठेगी । मुझे बचपन से दुख भोगने की आदत है, मैं भैया का अत्याचार, माता-पिता की अवहेलना सह-सहकर , मेरी प्रतिकार करने की मेरी शक्ति मर गई । इसलिए तुम जैसा चाहोगे, मैं वैसा करूँगी; जहाँ रखोगे,रहूँगी । भले ही मैं, कवि,कलाकार, दार्शनिक, वैग्यानिक एवं युग-निर्माताओं की प्रेरणास्रोत रही हूँ ; लेकिन मेरी प्रेरणा, मेरा संवल तुम हो । तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी, नरक होगी; जीना ढोंग होगा ।
मुझे तुम्हारे जमीन- जायदाद में कोई हक नहीं चाहिये । मैं धन-दौलत लेकर क्या करूँगी
; तुम खुश रहोगे तो ,सारे जहाँ की खुशी मेरे पास होगी । माँ-बाप ने मुझे यही सिखाया है ; पति के
चरणों से तुम्हारी नजर, उठकर उनकी नजरों से न टकरा जाये , इसका ख्याल रखना । उन्हीं के चरणों में तुम्हारा स्वर्ग है ।
लेकिन छ: महीने के बाद ही, लल्ली की मौत की खबर सुनकर, मैं काँप उठी । लगा, मानो,बर्फ़ भरी बाल्टी मेरे सर पर किसी ने ढाल दिया हो ; यह कैसे हो सकता है । मैं दीवार से लगकर खड़ी, सामने पड़ी लल्ली की लाश से पूछ ही रही थी, तभी उसकी माँ ने आकर मेरे कंधे पर अपना सर रखकर रोती हुई, उन्होंने जो कुछ बताया, मैं दंग रह गई । सिर्फ़ इतनी सी बात कि जब लल्ली के पति आफ़िस जा रहे थे; और दिनों की तरह, लल्ली बरामदे में खड़ी होकर पति को उस दिन भी दोनों हाथ हिला-हिलाकर विदा कर रही थी , तभी पति की नज़र ,पड़ोस के शर्माजी पर पड़ी । देखा, वे लल्ली को बड़े प्यार से निहार रहे थे । फ़िर क्या था, लल्ली का पति, घर लौट आया , और उसकी बालों को पड़कर घसीटता हुआ बरामदे में ले जाकर पड़ोसी को दिखाकर पूछा,’ यह तुम्हारा कौन लगता है, क्यों तुमको यह निहारता रहता है । ’ लल्ली कुछ जबाव देती, उमेश चिल्लाता हुआ बोला,’ अब तुम्हीं बताओ; जिस औरत का सर से पाँव तक दूसरा मर्द चूमा हो, नज़रों से ही सही, उसे मैं अपनी पत्नी कैसे बनाकर रख सकता । भलाई तुम्हारी ,इसी में है, कि तुम खुद इस घर से निकल जाओ,वरना मुझे निकालना होगा ’ । लल्ली , पति के चौकठ के बाहर भी, कैसे सोच सकती थी; सो वह नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली ।

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