Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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फूल बने अँगारे

 

फूल बने अँगारे


पति के स्वर्ग सिधारने के बाद रमाबाई, जैसे-तैसे खुद को सँभाल ली, यह सोचकर कि यह ईश्वरीय विधान की एक लीला है| माया का एक निर्मम हास्य, एक क्रूर खेल है| प्रणय का वह बंधन, जो सत्तर साल पहले पड़ा था; टूट तो चुका था, पर उसकी निशानी, पुत्र शम्भू के रूप में उसके सामने था| उसकी आँखें कुछ ढूंढती थीं, न पाकर रोती थीं  कभी-कभी पति की वह प्रेम-विह्वल स्मृति, जिसे देखकर वह गदगद हो जाती, दिल में छाये हुए अँधेरे में क्षीण, मलिन, निरानंद ज्योत्सना की भाँति प्रवेश करती, तब वह विलाप करने बैठ जाती| उसके लिए, भविष्य मृदु स्मृतियाँ नहीं बची थीं, कुछ बचा था, तो वह कठोर, निरस वर्त्तमान का विकराल रूप|

            शरीर साथ नहीं देता, फिर भी, मुँह अँधेरे सारे घर में झाड़ू लगाती, बरतन माँजती, आटा गूँथती, तब बहू का कार्य केवल रोटियाँ सेंकना और सास को सर्पिणी की भाँति दिन भर फुफकारना रहता था| एक दिन रमाबाई को अपनी पशुता, अपनी वास्तविक रूप में दिखाई दी, तत्क्षण उसने तय कर लिया, कि गृहस्थी की गाड़ी, अब और मुझसे खींचना संभव नहीं है, उसने घर का सारा काम करना बंद कर दिया| बहू यह सब देखकर आग-बबूला हो उठी| वह तड़पती हुई पति व्यास के पास गई, और अपना बयान देना शुरू कर दी| पहला ही वाक्य सुनकर व्यास सिहर उठे, और दूसरा वाक्य सुनकर उसके मुख पर का रंग ही उड़ गया| 

सीमा, कठोर लहजे में बोली---- आपके कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए क्या मैं अकेली हूँ, और कोई नहीं? 

व्यास, सीमा की बातों से हैरत होकर बोला---- मैं अपने कुल की रक्षा स्वयं कर सकता हूँ, इसके लिए तुम्हारी मदद नहीं चाहिए| मगर बात क्या है, खुलकर बताओ|

सीमा, आँसू भरी आँखों में तेज भरकर कही---- तो फिर अपनी माँ को समझाओ? उनसे कहो, इतने दिनों तक, तो वो इस घर की स्वामिनी बनी रही, अब तो बस करे! ऐसे भी, इस उम्र में अब, उनके लोक-परलोक की भलाई भी तो इसी में है, कि शेष जीवन भावत भजन में काटे, तीर्थयात्रा करें, साधु-संतों के बीच रहें| संभव है, उनके उपदेश से इनका चित्त शांत हो जाय, और माया-मोह से मुक्ति पा जाएँ| ऐसे भी घर में रहकर दिन भर मन मारे बैठी रहती है; पहले तो थोड़ा -बहुत घर का काम भी कर लिया करती थी, जिससे उनका जी बहल जाता था| अब तो सब छोड़ दी|

इस प्रकार दो महीने बीत गये; पूस का महीना आया| रमाबाई के पास जाड़े का कोई कपड़ा नहीं था| पूस का कडकडाता जाड़ा, लिहाफ या कम्बल के बगैर कैसे कटता? रात भर गठरी बनी रहती, जब बहुत सर्दी लगती, तो बिछावन ओढ़ लेती| सो बेटे से जाकर बोली---- बेटा! मुझे कुछ गरम कपडे खरीद दो| बहुत ठंढ पड़ रही है, अब और बर्दास्त नहीं कर पा रही हूँ| दिन ढलते ही रात के कष्ट की कल्पना कर भयभीत हो जाती हूँ|

             रमाबाई के घर में दो कोठरियां थीं, और एक बरामदा| एक कोठरी ,बेटे-बहू ने हथिया लिया था, और दूसरे कोठरी में खाना बनता था| सोने-बैठने का कोई विशेष स्थान नहीं था| रात को जब सभी लोग खा-पीकर सोने चले जाते थे, तब वह दादी का शयनगृह बन जाता था| दादी रात भर वहीँ पड़ी रहती थी, बिना किसी गरम कपडे के, बाबजूद बहू को, दादी का घर में होना खलता था| उसने मन ही मन तय कर रखा था, कि जैसे भी हो बुढ़िया को निकाल बाहर करना है| उसने व्यास से भी कह रखा था---- देखो जी! तुम्हारी माँ के कारण, मैं जब कभी तुम्हारा घर और तुमको छोड़कर चली जाऊँगी| बहुत हो गया, जब देखो, बक-बक करती रहती है|

          व्यास दिखाबे के लिए नम्र, इतना सेवातत्पर, इतना घनिष्ठ था, कि वह स्पष्ट रूप से माँ के किसी काम में कोई आपत्ति नहीं जता पाता था| पर हाँ, दूसरों पर रखकर श्लेष रूप से माँ को सुना-सुनाकर गुबार निकालता था| रमाबाई, बेटे की उद्दंडता पर न ही रोती थी, और न ही क्षुब्ध होती थी| पर यह जानने के लिए, उसकी आत्मा तड़पती रहती थी; वह व्यास की तरफ कातर नेत्रों से देखती हुई पूछी, कि बेटा, यह किस गलती की सजा है? क्या तुमको जन्म दिया, अपने भगीरथ परिश्रम से पाला---बड़ा किया, इस काबिल बनाया कि दुनिया में सर उठाकर जी सको, क्या यही गलती है मेरी, इसे ही मैं अपनी गलती मान लूँ| बहू तो, सामने और परोक्ष, रूप से मेरा नाको दम किये रखती है ,और तुम हो कि सीधा मुँह बात तक नहीं करते| मैं बीमार हूँ, मुझे किसी चीज की जरूरत है,और नहीं, पूछते तक नहीं| क्यों बेटा, कल और आज में इतना फर्क?

           जब तक तुम्हारे पिता ज़िंदा रहे, घर का कठिन काम वे खुद कर लिया करते थे; मुझे कभी नहीं करने दिया| अभ्यास नहीं रहने के कारण, घर के काम-काज से रात को कुछ ज्वर रहने लगा| धीरे-धीरे यह गति हुई कि जब देखो ज्वर विद्यमान है; न खाने की इच्छा होती है, न पीने की| फिर भी दो रोज पहले तक सदैव काम करती रही; और ज्वर होते ही, चादर ओढ़कर लेट जाती थी| दिन भर घर के कोने में पड़ी कराहती रहती थी| दुर्बलता के कारण जब मूर्च्छा आती है, तब हाथ-पाँव अकड़ जाते हैं| तुम आफिस आते-जाते, मुझे मन मारे देखते हो, पर शिष्टाचार के नाते भी कभी पूछते तक नहीं, कि तुम्हें  क्या हुआ है, जो इतनी दुबली हो रही हो? 

           अपने पिता के होते तुम ऐसे नहीं थे; तब भी तुम अपनी पत्नी से इतना ही प्रेम करते थे|  मगर कभी पत्नी के पक्ष में खड़े होकर, पिता की उपेक्षा नहीं किये थे| आधी रात को भी जब वे आवाज लगाते थे, तुम अपने दोनों हाथ बांधे, सामने आकर खड़े हो जाते थे| तब तुम्हारे पिता बड़े ही गर्व से कहते थे---- देखो व्यास की माँ! मैंने अपने बेटे को कैसा संस्कार दिया है, इसे कहते हैं, खानदानी संस्कार| काश कि वे अपने दिए संस्कार को देख पाते कि किस तरह वह संस्कारी बेटा, अपनी कठोरता और निर्दयता से पिता की भविष्य- आकांक्षाओं को धूल में मिला रहा है|            

           माँ की एक-एक बात व्यास के दिल पर चिनगारी की तरह फफोले डाल रही थी| उसने जलती हुई आँखों से, माँ की और देखकर कहा---- माँ, तुम तो एक वकील की पत्नी हो? कानून की बहुत सी बातें जानती होगी| तो यह भी जानती होगी कि अगर पिताजी, अपनी सारी संपत्ति तुमको देना चाहते, तो कोई वसीयत जरूर लिख जाते| यद्यपि कानून की नजर में वसीयत कोई चीज नहीं होती, पर हम उसका सम्मान करते| उनके वसीयत का न होना, बताता है की उनकी संपत्ति का मालिक मैं और सिर्फ मैं हूँ| इसलिए मेरी पत्नी से यह कहना, कि यह घर, यह जायदाद मेरा है, इसलिए कि इसे मेरे पति ने अपनी कड़ी मेहनत से बनाया है, बंद करो| 

             दिन भर, रमाबाई फ़िक्र में डूबी मौन बैठी सोचती रही, कितनी बड़ी भूल थी| पति के जीवनकाल में जो बालक मेरा चेहरा ताकते रहता था, आज वो मेरे नसीब का विधाता बन गया है| यह सोचकर मैंने यह जायदाद नहीं खरीदी थी, कि एक दिन इससे बेदखल भी होना होगा| मैंने तो इसे जीविका का आधार समझा था| इस जायदाद को खरीदने और संवारने में मुझे वही सुख मिलता था, जो सुख एक माँ अपने संतान को फलते-फूलते देखकर पाती है| अगर यह पता होता, कि एक दिन इस पर मेरा कोई हक़ नहीं रहेगा, मैं रुपये लुटा देती, दान कर देती, पर संपत्ति की कील अपनी छाती पर नहीं गाडती| अनाथिनी तो पति के अंतिम साँस के साथ ही मैं हो गई थी| मात्र भ्रमवश अपने को स्वामिनी समझ रही थी| अच्छा हुआ, आज तुमने उस भ्रम का सहारा भी छीन लिया|

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