पोंगा पंडित
दुहना गाँव काबटोरनपंडित, जाति सेकुलीन ब्राह्मणथे, पर एक गरीब विधवासेफ़ंसेहुएथे । इसबात को पूरागाँवजानता था , बाबजूद किसी मेंइतनीहिम्मतनहींथीकिइसबातपरचर्चाभीकरसके । चाचा पोथी-पत्रेवाचतेथे; भागवत कथासुनाते थे । ललाट पर तिलकऔरमुँहमें पान, धर्म-संस्कार भी कराते थे । उनकी प्रतिष्ठा में कोई कमीनहीं थी । नित्य गंगा स्नानऔरपूजा-पाठ करअपनेपापोंकोधो लियाकरतेथे । पंडित जी भीमहसूसकरते थे ,कि वेजोकर रहे हैं, गलत है, लेकिन एकप्यासेकानदीयाकुआँ हीतोसहारा होता है, जहाँ वह अपनीप्यास बुझा सके ; भले ही नदीगहरीया छिछली हो, उससे क्या बनता-बिगड़ता है ? नदी, नदी होती है, लेकिन यहबात गाँव केमुखियाबिशन सिंहजीकोजराभीपसंदनहीं था । उसका कहना था, कोई छोटे आदमीकरता, तो उसकी मरजादबिगड़ जाती, जाति वाले हुक्का-पानी अलग कर लेते, शादी-ब्याह, मुंडन-छेदन, जनम-मरण सबकुछ से, जाति बिरादरी वाले दूर करदेते ,जिससे किउसकाजीवनविशृंखलहोजाय, तार-तार हो जाय । मगर यहाँ तोलोग उनके सम्मान में कसीदेकसते हैं, कहते हैं---- येकाले, लम्बी नाकऔरबड़ी-बड़ी मूँछोंवालेपंडितजीविदूषक तो हैं ही, साथ में हँसोड़भी । इस गाँव कोअपना ससुराल बनाकरमर्दों से सालेअथवा ससुर औरऔरतोंसेसाली या सलहज कानाताजोड़कर सबोंकोअपना बना लियाहै । रास्ते में सरारतीलड़के उन्हेंचिढ़ाते, कहते --- पा लागूँपंडित जी ! तब पंडित जीचटपट उसेआशीर्वाददे देते , कहते--- तुम्हारी आँखें फ़ूटें, टाँग टूटे, मिर्गी आये, घर मेंआगलगे आदि, मगर लड़केथे किपंडित जी के इन आशीर्वादोंसेकभी नहीं अघाते, लेकिन पंडितजीलेन-देन में बड़ेहीकठोरथे । पूजा-पाठ का बाकी –बकाया दक्षिणा, प्रणामी की एक पाई नहीं छोड़ते थे । सप्ताह का एक दिन वे अपना पावना उगाही के लिए रखते थे । जब तक जजमान पाई-पाई नहीं चुका देते , वे दरवाजे पर तकादा देना नहीं भूलते ।
एक दिन पंडित जी अपने चेहरे पर , सहानुभूति का रंग पोतकर मुखिया जी से कहे---- मुखिया जी ! सुनने में आया है कि आपकी शीघ्र शादी होने वाली है ?
मुखिया जी शर्माते हुए बोले---- माँ-बाप की कोशिश तो यही है ।
पंडित जी व्यंग्य के लहजे में कहे---- जानते हैं मुखिया जी, दुनिया में विरले ही ऐसे शख्स आपको मिलेंगे, जो अपने पैरों में बेड़ियाँ डालकर भी विकास के पथ पर चल पाते हैं, ऐसे यह बात सौ फ़ी सदी सच है कि, पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम, त्याग और बलिदान का बहुत बड़ा महत्व है । हर कोई अपनी आत्मा को दृढ़ नहीं कर पाता । जिस दिन मन मोह में आसक्त हुआ, हम बंधन में पड़े । उस क्षण हमारी मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जाता है । नई-नई जिम्मेदारियाँ आ जाती हैं, और हमारी सम्पूर्ण शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लग जाती है । लेकिन मुझे पता है, आपके जैसा विचारवान, प्रतिभाशाली इन्सान अपनी आत्मा को इस कारागार में कभी कैद नहीं कर सकता । अब तक आपका जीवन एक यग्य था ,जिसमें स्वार्थ का जरा भी स्थान नहीं रहता । इस गाँव को आपके जैसा साधक की जरूरत है । विश्व में अन्याय की, आतंक की, भय की दुहाई मची हुई है । आपने सब की आर्त्त-पुकार सुनी है : क्या गरीब, क्या अमीर, क्या ऊँच, क्या नीच; मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगा,कि आप अपनी शादी के बाद भी आज की तरह गाँव वालों के पथ-प्रदर्शक ही नहीं, रक्षक भी बने रहेंगे । याद रखिये, आज जो गाँव वाले आपका इतना रोब सहते हैं, यह केवल मुखिया होने के नाते नहीं, बल्कि यह आपकी उदार सज्जनता का फ़ल है ।
तभी किसी ने आकर बताया ---- मुखिया जी ! आपके पिता जी, किशन सिंह आ रहे हैं । किशन सिंह बड़े ही अनुभवी आदमी थे । वे पंडित जी को देखते ही समझ गये, कि यहाँ कुछ न कुछ , छल-प्रपंच का सूत्रपात हो रहा है । वे स्थिति को भांपते हुए मुखिया से बोले --- बेटा ! मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ , न जाने कब कब गिर जाऊँ । अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो, नौकरी तो पा न सके , पाते भी कैसे ?
यह दुनिया पहले सी नहीं रही, पीर का बाजार बन चुकी है । लोगों की निगाह चढ़ावे और चादर पर रहती है, जोकि हमारे पास नहीं थे । बाकी तुम खुद समझदार हो, तुम्हें क्या समझाऊँ । जीने के लिए विवेक की बड़ी आवश्यकता पड़ती है । सामने वाले को देखो-परखो , उसके बाद जो उचित लगे , कदम लो ; गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है, लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन होता है । इन बातों को निगाह में बाँध लो ,यह उपदेश देकर पिता किशन सिंह चले गये । बिशन सिंह अपने पिता का आग्याकारी पुत्र था, इसलिए पिता के जाने के बाद मनन कर बैठ गया, सोचने लगा---- क्या पिताजी, इस पंडित के दिल के संदेह को भांप गये, तभी उसका दिल कह उठा---- हाँ, मुखिया, गहरे पानी में बैठने से ही मोती मिलता है । देखा न तुम्हारी शादी की बात करते, पंडित की आँखें किस तरह जगमगा उठी थी, और जवाब सुनने के लिए कान खड़े हो गये थे, मानो रसिक ने गाने की आवाज सुन ली है , जिसे पिताजी को पहचानने में जरा भी देरी नहीं हुई ।
कुछ देर तक बिशन सिंह चुपचाप बैठा रहा,कि अचानक तड़पकर उठ बैठा, और उन्मत्त स्वर में बोला -------- कभी नहीं, प्रलय तक नहीं । बिशन सिंह, पंडित जी के लिए क्षमा याचना का शब्द ढ़ूँढ़ा , फ़िर बोला ----- पंडित जी ! आदमी अपनी सज्जनता से सज्जन कहलाता है, और उदारता से उदार , लेकिन मैं किसी भी तरह उस देवी के योग्य नहीं था । पता नहीं, किन शुभकर्मों के फ़ल से वह मुझे मिली है, मैं नहीं जानता । फ़िर अकड़ते हुए बोला--- संयोग से आप आ ही गये हैं , तो उसकी तस्वीर देखते जाइये । मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है, कि आप देखते ही यहाँ से उठकर चले जायेंगे । कारण उसके रूप में केवल रूप की गरिमा नहीं है, रूप का माधुर्य भी है, उसमें मादकता है , अंग साँचे में ढ़ला ; कवि की कल्पना है, अब आप ही कहिये, ऐसे में अपने शुभकर्मों के फ़ल को लेने से मैं कैसे इनकार कर दूँ ।
सुनते ही पंडित जी का दिल बैठ गया, बेचारा अभी तक बिन –ब्याहा था, इसलिए नहीं कि उसकी शादी नहीं होती थी, बल्कि वह शादी को एक कारावास समझता था । मगर पंडित जी शादी से अलग रहकर भी शादी के मजों से अपरिचित नहीं थे । उन्हें अपनी रूखी-सूखी जिंदगी को तरोराजा करने के लिए एक नई स्त्री की जरूरत थी, लेकिन मुखिया की चाल ने उसे उसे उलझन में डाल दिया । ऐसी शर्मिन्दगी उन्हें जीवन में कभी नहीं हुई थी । पंडित जी कुछ देर तक चुप बैठे रहे, फ़िर बिना कुछ बोले घर कॊ ओर चल दिये ।
पंडित जी को जाते देख, मुखिया नम्रता से कहा--- पंडित जी, मैं तो शुरू से ही शादी के पक्ष में नहीं था, लेकिन बात कुछ ऐसी आ पड़ी है कि मैं बिबस हूँ । अत: अपने सिद्धांतों की रक्षा नहीं कर पा रहा हूँ । मुझे भय है कि मेरी एक ’ना’ पर माँ और पिताजी जान पर खेल जायेंगे ।
यह सुनकर पंडित का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया , बोले---- ’ यह आप क्या कह रहे हैं, आखिर आप मुझे समझते क्या हैं ? यही न कि उस लड़की से मैं ब्याह रचाना चाह रहा हूँ , आपको शर्म आनी चाहिये । मैं ब्राह्मण हूँ, और ब्राह्मणों में भी कुलीन ; ब्राह्मण कितने भी पतित हो जाय, इतने मर्यादा- शून्य नहीं हुए हैं कि एक बनिये –बक्कलों से शादी कर ले । आपको मुझसे ऐसी बातें करने की हिम्मत कैसे हुई ? अरे ! कोई निर्दय़ी काल के ठोकर से अधर्म मार्ग पर उतर आये, तो वह अधर्मी नहीं कहलाता ; मैं अधर्मी नहीं हूँ ।
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