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Dr. Srimati Tara Singh
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प्रभु ! मन में आन क्यों भरा

 

प्रभु ! मन में आन क्यों भरा

                             ----- डा० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई



प्रभु ! तुम्हारी जगती के, कण-कण 

का परिहास बन जीता आया मानव

अपने अंतर के दशमुख तम से,क्या

कम आन्दोलित था,जो तुमने उसके

अंतर में ,एक हृदय, हृदय मेंप्राण

प्राण में मन, मन में आन को भरा


आज उसी आन की रक्षा में, मनुज

धरा  स्वर्ग को स्वप्न सेतु में बाँध

अपने अहंता का बना रहा है सोपान

छोड़  पीनाप्रीति सुधा, जो तुम्हारे

भू -  घट में   छलछलारहा

तृष्णाके  गरल  को पी  रहा


अपने  मृणमय  अधरों पर फ़ूलों की शाश्वत

स्मिति को भर कर भी,प्रतिपल भी जल रहा

पावन मोहित निभृत घाटियाँ,जो चिर तुम्हारी 

ममता  के  स्वर्णिम  प्रकाश  से रहती भरी

उसे  त्याग, वन -  वन को भटक  रहा


अब तुम्हीं कहो,इस मरणोन्मुख मानव को

नव  जीवन  का  आश्वासन  कौन  देगा

कौन  उसके  क्षुब्ध  उच्छ्वासित प्राण के

उन्मद सागर पर, मर्यादा का बाँध बाँधेगा

जिससे  मनुज जीवन का पद्म ,स्वप्नों के

शिखरों  से  न  टकराये, प्राणों की शीतल

सुचिता, सद्यस्फ़ुटित कमल –सी खिला रहे

पंचतंत्र के सपूत ,जिस नामहीन सुरभि को

तुम्हारा  मन  क्षण – क्षण  अकुला  रहा

वह भ्रमजालहै,  जोमानव तर्क

तंतु  से  है  बुना  हुआ, कौन समझायगा






इसलिए  निरत  फ़ूलों के वन की चाह रखने वाले

मनुज मन  को, अब  तुमको  समझाना  होगा

अहं  मनुज का  आत्म –प्रतारक  है  होता ,जो

मानव  मन  के भीतर घुसकर,तोप-सा नाद करता 

भले-बुरे,पाप-पुण्य,सच-झूठ में अंतर नहीं कर पाता

मन का अहं मनुज का पथ-कंटक है,कौन बतायेगा



प्रभु !  सचमुच  अगर  तुम चाहतेहो

धरती  का  यह  पावन  प्रांगण, मानव के

अंतर  जीवन की उर्ध्व महिमा से मंडित हो

तुमको  सबसे पहले,मानव मन सीमाओं के

अतिक्रम का  अतिक्रमण   करना  होगा

तभी   मानव   उर  की  दंभशिला  टूटेगी

लक्ष्यभ्रष्ट   हो , अंध   वीथियों  में  खोकर

ज्वलित  अंगारों का  धुँध  बना  छोड़ेगा

जीवन  का  मूल्य  परिणत  कर अनंत को

अभिलाषा के स्वर्ग क्षितिज को छूना छोड़ेगा

अन्यथा  मनुज -पद्म , इस  धरती पर ,भू-

लुंठित  हो ,सदा  के  लिए  मुरझ  जायगा


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