प्राचीन काल में नारी
--- डॉ० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई
आरम्भ काल से ही पृथ्वी पर नर का एकाधिकार रहा है , चाहे वह क्षेत्र लड़ाई का हो, विग्यान का हो, खेल-कूद का हो या फ़िर राजपाट का क्षेत्र हो । नारी के प्रति चलता आ रहा अन्याय, आदिकाल से जस का तस है,नारी तो जनम से लेकर मृत्यु तक इसी सफ़र से गुजरती है । उसके लिए हर दिन, हर पल, हर समय, हर उम्र , अलग-अलग तरह की कठिनाइयाँ भरी होती है , और इन कठिनाइयों को झेलती हुई, एक दिन इस दुनिया से विदा हो जाती है । लेकिन ऐसी जिंदगी जीना आसान नहीं होता है; कभी-कभी तो जीते-जी स्वयं मौत को गले लगा लेती है, और कभी जबरन लगा दिया जाता है ; लेकिन ऋगवेद काल, उपनिषद काल में जाने से ऐसा तो प्रतीत नहीं होता, जैसा की वहाँ उल्लेख है । उस जमाने में नारी पूर्ण विकास पर थी, उसे समाज में नर के बराबरी का स्थान दिया जाता था । स्त्रियाँ भी, अपनी शैक्षणिक अनुशासन के अनुसार , ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती हुई शिक्षा ग्रहण करती थीं । तत्पश्चात अपना विवाह रचाती थीं । ईशा से ५०० साल पूर्व , वैयाकरण पाणिनि द्वारा पता चला है, कि नारी, वेद अध्ययन भी करती थी तथा शास्त्रों की रचना करती थी ; जो ’ब्रह्म वादिनी’ कहलाती थी । इनमें रोमशा लोपामुद्रा, घोषा, इन्द्राणी नाम प्रसिद्ध हैं । ’ पतांजलि’ में तो नारी के लिए ’शाक्तिकी’ शब्द का प्रयोग किया गया है; अर्थात ’ भाला धारण करने वाली’ । इससे प्रतीत होता है, कि नारी सैनिक शिक्षाएँ भी लिया करती थी और पुरुषों की भाँति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाती थी ।
चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित महिलाओं का उल्लेख किया गया है । अवस्ता और पहलवी में ,नर और नारीकीशिक्षामेंथोड़ी सीविभिन्नताएँ थीं । नारियों को विशेष रूप से गृह कार्य , ललित कला, संगीत , नृत्य
आदि मेंशिक्षा दी जाती थी ; जिससे परिवार संभालने के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक जिम्मेदारी को भी बखूबी निभा लेती थी । इस तरह की शिक्षा, उस समय केवल भारत में ही नहीं,बल्कि दुनिया भर में प्रचलित था। बौद्ध काल में भी विदुषी होने का प्रमाण मिलता है ; लेकिन नारियों के लिए,संघ का नियम थोड़ा कठोर हुआ करता था । बाबजूद नारियाँ, शिक्षा ग्रहण करने संघ में जाया करती थीं ।
ईशाइयों में ग्यान प्राप्ति को लेकर, कोई भेदभाव पहले भी नहीं था, आज भी नहीं है । उस जमाने में उच्च शिक्षा पाने के लिए स्त्रियों को ’नन’ ( भिक्षुणी ) का जीवन व्यतीत करना होता था ; जब कि पुरुषों के लिए कोई शर्त नहीं होता था । मुसलमानों में परदे की प्रथा होने के कारण, औरतें, मर्द के बगैर घर से बाहर न निकलने की जबरन प्रथा से भारतीय समाज की मुसलिम नारी की शिक्षा लगभग समाप्त हो गई थी । आज भी मुसलिम समाज में स्त्रियों की शिक्षा, इच्छाप्रद या संतोषजनक नहीं है । लेकिन समृद्ध परिवार की औरतों को शिक्षित बनाने की परम्परा आरम्भ काल से रही है । इनमें जहाँआरा, जेब्बुनिसा, नूरजहाँ नाम प्रमुख हैं । इन्हें हर तरह की शिक्षा , घर पर उपलब्ध थी ।
हिन्दुओं में बाल-विवाह और सती प्रथा, नारी जीवन का अभिशाप बन गया था । होश संभालने के पहले ही बेटियों को शादी के खूँटे से एक गाय की भांति बाँध दिया जाता था । यह परम्परा आज भी है, लेकिन खतम होने के कगार पर है ; उससे भी जी नहीं भरा, तो चालाक नर सती प्रथा को लागू कर, हिन्दू स्त्रियों की शिक्षा, मुसलिम औरतों की भाँति लगभग समाप्त कर दिया । नारी आगे बढ़े, देश शिक्षित हो, सभ्य हो, जब तक बाल-विवाह , सती प्रथा जैसी जघन्य रिवाजों को खत्म नहीं किया जायगा, असंभव है । बंगाल में राजा राम मोहन राय ने, इन कुप्रथाओं को हंटाने के लिए, पहली बार आवाज उठाई । उनके कठोर संघर्ष का नतीजा है कि आज बाल-विवाह, सती प्रथा; हिंदू समाज से पूरी तरह लगभग उठ गया । उन्हीं की बदौलत, अब फ़िर से हिंदू नारी शिक्षा के क्षेत्र में, लगभग हर ओहदे पर पुरुष की बराबरी कर रही है । चाहे वह चाँद पर जाने की बात हो, या फ़िर डाक्टर या इंजीनियर, कोई भी क्षेत्र आज ऐसा नहीं है, जहाँ नारी अपना आधिपत्य नहीं जमा सकी । १९ वीं शताब्दी के समाप्ति तक, भारत मेंलगभगबारह कालेज, ४६७ हाई स्कूलऔर लगभग५६२८प्राइमरी स्कूल,
लड़कियों के लिए अलग से ( लड़कों के साथ तो पढ़ती ही हैं ) खुल चुके हैं । सरकारी आँकड़ों के अनुसार, १९ वीं सदी के अंत तक छात्राओं की संख्या ४४४४७ थी । अभी तो यह आंकड़ा दुगुना हो गया है । इनमें मुसलिम छात्राएँ भी, हिन्दू छात्राओं से कम नहीं हैं । आज राजनीति में भी मुसलिम औरतें बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं । कोई भी क्षेत्र अब इनसे अछूता नहीं है । दुख बस,इस बात की है कि इनकी संख्या कम है । फ़िर भी नारी शनै:-शनै: आगे बढ़ती हुई, एक दिन पूरी तरह शिक्षित हो जायगी--- मेरा तो यही आशा और विश्वास है ।
समय की पुकार का नारी को शिक्षित बनाने की दिशा में काफ़ी योगदान रहा, जिससे नारी की स्थिति में थोड़ा सुधार आना शुरू हुआ । फ़िर भी हर धर्म, हर जाति वर्ग की औरत की पीड़ा,आज भी कहीं न कहीं कम- बेश एक जैसी ही है । जिसे हम सुधार कहते हैं, अभी भी यह नाकाफ़ी है । औरत के प्रति जो धार्मिक रुग्नताएँ हैं, उससे भी औरत, मर्द के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने में खुद को असमर्थ पाती है । प्राचीन काल से ही हमारे समाज में यह प्रचलन चला आ रहा है कि मृत्यु बाद, जलाने से पहले, बेटे के हाथ से मुखबाती , स्वर्ग की प्राप्ति कराता है और इसके लिए पुत्र होना अनिवार्य है । ’ बेटे का न जनमना, औरत का दोष मानकर, मर्द की दूसरी शादी कर लेना, या फ़िर जिंदगी के अंतिम साँस तक जलील करना, मर्द के एकाधिकार में आता है । जब कि बेटा न जनमना, नर में दोष के कारण होता है । अशिक्षा के कारण ही हमारी बेटियाँ रोज जलाई जाती हैं । अगर हम पढ़ा-लिखाकर, उसे अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम बना दें, तो इस दहेज दानव का मुकाबला, बेटियाँ बखूबी कर सकेंगी ।
नारी की जिंदगी बड़ी कशमकश में उलझी हुई है । खासकर तब, जब वह सिर्फ़ गृहणी नहीं,उसके साथ-साथ उसे और भी कई तरह की जिम्मेदारियों को लेकर चलना पड़ता है ; जैसे, बच्चों का लालन-पालन; खाना पकाना; जिन्हें बिना निबटाए वह, आगे नहीं बढ़ सकती । ऐसे समय में नारी की सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी होती है ।, लेकिन इतना सब करने के बाबजूद भी परिवार व समाज , उसके कामों को ,या उसको महत्व नहीं देता । चाहे हम कितने भी महिला-दिवस समारोह घोषित करें, नारी जाति कितने ही मैडल जमा कर ले. उसे समाज, पुरुष के समान बराबरी का दर्जा अभी तक नहीं दे पाया । नारी के प्रति चलता आ रहा यह अत्याचार कब खत्म होगा, खुद पुरुष समाज भी नहीं बता सकता, क्योंकि कपड़े बदल लेने से आदमी नहीं बदल जाता । बाबजूद आज नारी जीवन में बदलाव आया है ; नारी महज रसोई घर तक सिमटी नहीं है और न ही घर की चहारदीवारी के भीतर सज-धजकर बैठी पुरुष जाति की भोग्या है । हलांकि यह कुछ इने-गिने नारियों की बातें मैं कर रही हूँ, वरना अधिकांश नारी के लिए तो आज भी वह चूल्हा-चौका है । नारी पर अत्याचार, आरम्भकाल से ही होता आ रहा है । इसके लिए बहुत हद तक नारी स्वयं कसूरवार है, अगर किसी घर में बहू प्रतारित होती है, तो इसका जड़ नारी रूप में सास और ननदें हैं । अगर सास, ननद और बहू, तीनों एक होकर रहे, तो मजाल है कि इनको घर के पुरुष प्रतारित कर सकें ,बल्कि इसका ठीक उलट, पुरुष अदब के साथ जीने के लिए मजबूर हो जाये ।
मैं मानती हूँ, नारी की स्वतंत्रता, पुरुष कभी बर्दास्त नहीं कर सकता; वह नारी को एक गुलाम समझता आया है ,फ़िर भी मैं सलाह दूँगी कि नारी को घर के बाहर मर्यादित होकर निकलना चाहिये । आचार- व्यवहार. पहनावा- ओढ़ावा, ऐसा होना चाहिये, कि पुरुष की गंदी नजरें उनके अंग पर भी न टिके ; क्योंकि सदियाँ गुजर गईं, पुरुषों के सोच की संकीर्णताएँ नहीं बदलीं । इसलिए हमें, अपनी कुछ चाहतों को दरकिनार करना पड़ेगा , तभी हम महिलाएँ सुरक्षित रह सकेंगी ।
हमारे देश में नारी को देवी, श्रद्धा , अबला जैसे शब्दों से सम्बोधित करने की प्रथा बहुत पुरानी है । ये एक छलावे भरे शब्द हैं , जिनकी आढ़ में पुरुष, स्त्री को यह समझाने की कोशिश करता है,’ नारी तुम केवल पुरुष-पूजा की पात्र हो ; भोग्या हो । हमारे समाज के उत्थान-पतन में तुम्हारी कोई भागीदारी न है, न ही हम स्वीकारते हैं ।’ इस हीनता के परिणाम-स्वरूप ही हमारे सामने अक्सर इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं, या उठाये जाते हैं,कि नारी का समाज के विकास या राष्ट्र के निर्माण में क्या योगदान है ? क्यों प्रश्नकर्त्ता यह भूल जाता
है कि, नारी मातृ-सत्ता का नाम है , जो जन्म देकर हमें पालती है,पोसती है और इस लायक बनाती है कि हम जीवन में कुछ कर सकें ? अपनी स्नेहिल छाया से अभिभूत किये रखना, क्या यह राष्ट्र-सेवा नहीं है ? ऐसे भी आज नारी, नर से किसी भी क्षेत्र में (चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या त्याग का ) ज्यादा सक्षम है; उसे बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभाना आता है ।
वैदिक काल के बाद भी जिस भारती राष्ट्र और सभ्यता के निर्माण-विकास का कार्य चलता रहा, उसमें नारियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है । यद्यपि अधिकांश नाम समय की धूल में विलुप्त हो चुके हैं । पौराणिक काल में महाराजा दशरथ के युद्ध के अवसर पर ,उनकी पत्नी कैकेयी,सारथी बनी थी । उन्होंने रथ की कील निकल जाने पर अपनी उँगली को कील के स्थान पर लगा दिया और राजा दशरथ को रण में विमुख नहीं होने दिया । क्या यह राष्ट्र-रक्षा,सेवा या निर्माण नहीं है ? मध्यकाल में पुरुष यद्यपि नारी को भोग्या बनाकर रखा था, फ़िर भी उनकी उर्जस्विता अनेक बार प्रकट हुई । रजिया सुल्तान, बीबी चाँद, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई आदि अनेकों नाम हैं , तभी तो आज भी नारी को आदरणीया और प्रात: स्मरणीया माना जाता है ।
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