प्रकृति, इतनी निर्मम हो सकती है
कहते हैं, प्रकृति और ईश्वर
कहने को अलग-अलग हैं
इनमें कोई भेद नहीं है
दोनों एक दूजे के पर्याय हैं
इनमें कोई क्लेश नहीं है
प्रकृति परिवर्तन के नर्तन में,नित गल-गलकर
ईश्वर की कांति- सिंधु में ,मिल - जुलकर
स्वर्गलोक के देवों की शोभा , सुंदरता
ज्योति- प्रीति- आनंद अलौकिक को धरा पर
उतारकर, जग को और सुंदर-शौभ्य बनाती है
लेकिन इसके शीतल,अगाध मौन में है
इतनी आग भरी,कि अपने सुख-स्पर्शों से
अणु-अणु को पुलकित करने वाली,प्रकृति
क्षण में अखिल धरा को, उदधि में
डुबोकर ,मर्यादा विहीन बना सकती है
जापान में , मानव संघार की दुखमय गाथा
जो इतिहास के पन्नों में नहीं समा सकती
जो उदधि समान अनन्त है , झंझा सा
बलवान, काल सा क्रोधित , प्रकृति का यह
निर्मम रूप, जिसने पहले कभी नहीं देखा
अधर पल्लवों में प्रभात,जगाने वाली प्रकृति का
प्राण वज्र का है, कोई कैसे कह सकता
जीवन गरिमा से मंडित भुवन को
मदमत्त तुरंगों पर चढ़कर, उसके
दुर्धर पदचापों से , भू समुद्र को
हिल्लोलित कर , धरा गर्भ से
शैल सा , अग्नि स्तंभ उठाकर
क्रुद्ध बवंडर , अंधड़ की रोर से
गगन को वधिर कर, भयानकता के
पाश में धरा मनुज बाँधकर,इतना उपहास
उड़ा सकती है, कोई कैसे सोच सकता है
जिसने भी देखा,प्रकृति का यह निर्मम रूप
कैसे विनाश की वेदी पर चढ़ता जा रहा
निरीह जन , बाल- वृद्ध , स्त्री- पुरुष
कैसे दुधमुँहें शिशु की पसलियाँ
पतझड़ की टहनियों सी जिधर-तिधर हैं
बिखरी हुई देख,कलेजा मुँह को आ गया
माँ की चित्कारें, कंठ में रह गईं छूट
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