प्राणाकांक्षा
छोड़ परदेश पिया, आ जाओ अपने देश
सिकुड़ा-सिकुड़ा दिन रहता, तप, पानी में बैठा
गई साँस, लौटकर फिर से नहीं आती
अब तुम्हीं सँभालो इसे आकर, ज्यों सँभालते गेह
अर्पित है तुमको, सूख चुका लता-सी मेरा यह देह
दूर क्षितिज में देखो, तरुमाला के ऊपर
विहंगों की काली पाँती-सी, उड़ने लगीं
सावन की काली घटाएँ, घनघोर
नाच-नाचकर आँगन में, गाने लगे केका-
केकी, हिलने लगा नभ का ओर-छोर
ऊँचे तरुओं के पत्रों के झुरमुट से गिरता
सावन की बूँदों की रिमझिम का स्वर
भीतर अंतर को कँपाने लगा, छू-छूकर
हृदय के मृत रजकण में, चेतना भरने लगा
गमक कर केतकी की गंध, फैल गई चारों ओर
नव मुकुलित, अंगों के उपवन में, पलकों की
मृदु पंखुड़ियों पर, प्राण पिक लेने लगा हिलोर
पूछने लगा, जिसके लिए तरसूँ मैं नित
जिसके लिए नाच-नाचकर गाता
मेरा मन मोर, कहाँ गया वह चितचोर
लालसा भरे यौवन के दिन, पतझड़ में सूख चले
मेरी अपूर्णता को अब तक न तुम समझ सके
पुरुषत्व मोह में, तुम इस तरह रहे मशगूल
कुछ अधिकार होता, नर संतलत पर नारी का भी
झलमल स्वप्न रहता भले ही, कर स्पर्श से दूर
छूना चाहती वह भी, इसे तुम गये मूल
यति-सा जागकर आँखों में रात काटती हूँ
सोचती, विरह-प्रेम से उपजे, इस मादक
तरंग को समेटकर धरूँ तो मैं कहाँ धरूँ
है कौन सा, प्राण सिंघु का वह अदृश्य किनारा
जिसे हृदय फोड़कर, छूना चाहती, रक्त की धारा
क्यों सदा से प्रेम-प्रीति, हृदय की उलझन बनती आई
जो चीज अलभ्य होती, उसी को चाहती आई
पड़ी है लम्बी-सी अवधि, जीवन पथ में
उस पार क्या है, व्यग्र मन को कैसे समझाऊँ
तुम भी जानते हो, तुमको भी है मालूम
जब ज्वारों पर ज्वारों का आता है आवेग
तब कंठ चुप रहता है, बोलता है दर्द
आँखें खुली रहकर भी रहती हैं खामोश
ऐसे भी विरह अग्नि में तपा चुके हो तुम
पहले ही बहुत, अब न करना कोई आदेश
छोड़ परदेश पिया, आ जाओ अपने देश
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