Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्राणाकांक्षा

 


प्राणाकांक्षा



छोड़  परदेश   पिया, आ  जाओ  अपने   देश

सिकुड़ा-सिकुड़ा  दिन रहता ,तप पानी  में  बैठा

गई    साँस ,  लौटकर  फ़िर   से   नहीं   आती

अब तुम्हीं सँभालो इसे आकर, ज्यों सँभालते गेह

अर्पित है तुमको,सूख चुकी लता–सी मेरा यह देह


दूर क्षितिज में देखो, तरुमाला के ऊपर

विहंगों  की काली पाँती-सी, उड़ने लगी

सावन   की   काली   घटाएं, घनघोर

नाच-नाचकर आँगन में,गाने लगे केका-

केकी , हिलने  लगा नभ का ओर-छोर


ऊँचे  तरुओं   के  पत्रों  के झुरमुट से गिरते

सावन  की  बूँदों   की  रिमझिम  का  स्वर

भीतर  अंतर  को  कंपाने  लगा, छू - छूकर

हृदय  के मृत  रजकण में, चेतना भरने लगा

गमक कर केतकी की गंध,फ़ैल गई चारो ओर

नव  मुकुलित, अंगों के उपवन में, पलकों की

मृदु पंखुरियों पर, प्राण पिक लेने लगा हिलोर

पूछने  लगा, जिसके  लिए  तरसूँ  मैं  नित

जिसके    लिए   नाच  - नाचकर    गाता

मेरा  मन  मोर, कहाँ  गया   वह  चितचोर




लालसाभरेयौवनकेदिन,पतझड़मेंसूख चले

मेरी अपूर्णता को  अब तक न तुम समझ सके

पुरुषत्व  मोह में, तुम  इस तरह  रहे मशगूल

कुछ  अधिकारहोता, नरसंतलतपरनारी काभी

झलमल  स्वप्न रहता भले ही,कर स्पर्श से दूर

छूना  चाहती  वह  भी, इसे  तुम  गये  भूल


यति  – साजागकर आँखों  में  रात काटती हूँ

सोचती , विरह –प्रेम  से  उपजे, इस  मादक 

तरंग  को  समेटकर  धरूँ  तो  मैं  कहाँ धरुँ

है कौन सा प्राण सिंधु का, वह अदॄश्य किनारा

जिसे हृदय फ़ोड़कर,छूना चाहती ,रक्त की धारा

क्यों सदा से प्रेम,हृदय की उलझन बनती आई

जो  चीज अलभ्य होती, उसी को चाहती आई

पड़ी  है  लम्बी –सी अवधि, जीवन  पथ  में

उस  पार क्या है,व्यग्र मन को कैसे समझाऊँ


तुम  भी जानते हो, तुमको भी है मालूम

जब ज्वारों पर ज्वारों का आता है आवेग

तब  कंठ  चुप  रहता है, बोलता  है दर्द

आँखें  खुली  रहकर भी रहती हैं खामोश

ऐसे भी विरह अग्नि में तपा चुके हो तुम

पहले ही बहुत, अब न करना कोई आदेश

छोड़  परदेश  पिया, आ जाओ अपने देश



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