Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्रेम रोग

 

प्रेम रोग



कोहरे में लिपटा इस धरा गर्त  के अतल से

निकलकर , असंख्य दुख -  विपदाएं , शत - शत 

भुज फैलाए, अग्नि – ज्वाल की लपटों सी

अँगराई  लेती रहती हैं,        इसलिए जीवन 

कंदर्प में खिला,    मनुष्यत्व का यह पद्म 

खिलते ही मुरझा  जाता है,  फिर भी मनुज 

मुरझाने से पहले,  अपनी आकांक्षा के तरु को

हृदय सरोवर के शीतल जल से सीचना चाहता है


नियति के इस निर्मम उपहास से मर्माहत हो उठी

मनुज की मूक  चेतना में गहरे व्रण पड़ जाते हैं

तब वह आकांक्षा के प्रीति पाश से बाँधकर काँपती

छाया के  पुलकित दूर्वांचल में,  कुछ देर ही सही

बैठकर समीर - सा सौरभ पीना चाहता है जिससे

जीवन संघर्षों की प्रतिध्वनियाँ उठकर संगीत में 

बदल सके,और सिहर रहे पत्रों के थर-थर सुख से

विभोर होकर , गंध पवन में भीनी- भीनी साँसें ले 

रही,  अर्द्धविकसित कलियों  का मुख चूम सके


जिससे हृदय की शिरा – शिरा में रोर रहे

प्रीति सलिल की शीतल धारा में स्नान कर 

अंतरमन विनाश के महाध्वंश में नवल सृजन कर सके 

मगर इस दुनिया में यह प्रेम बड़ा कठिन रोग होता है

जिसे लगता,   रातों की नींद चली जाती है,   दिल 

का चैन चला जाता है, दवा और दुआ कुछ काम नहीं

आता,  आषाढ की घनाली छाया, मदहोश किए रहती है

एक सरोज मुख के  बिना,  जीवन  अधूरा लगता है






आँखों को दामिनी चकित नहीं करती, कामिनी करती है

अधरों से  नव प्रवाल की मदिरा निकलकर  तन के

रोओं में आकर  दीपक  सी जलती रहती  है, जिसकी

महिमा फैली हुई है भुवन मेकामद       - सा

जिसका जयगान सिंधु,   नद, हिमवत्   सभी करतेहैं

प्रेमी मन उसे भी भूल जाता है,  कब दिन उगा

कब शाम हुई,  कब  दिन ढला, कुछ ग्यान नहीं रहता

मगर चाँदनी मलिन  और  सूरज तापविहीन दीखता है


क्या साधु क्या  फकीर,   क्या राजा क्या  रंक 

क्या देवताक्या दानव , सभी यही सोचते  हैं

ऐसा मनोमुग्धकारी पुष्प इस जहाँ में

दूसरा और कोई नहीं हो सकता,    जिसमें

रूप, रंग,गंध के संग-संग मदिर भाव भी रहता है

जिसको पाकर योगी योग तक भूल जाता है,  और

ग्यानी ग्यान भूल जाता है

दिवस रुदन में,   रात  आह में कट जाती है

इस दुनिया में प्रेम रोग सबसे कठिन रोग होता है

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