Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पुत्रमोह

 

पुत्रमोह


             देवना के पिता सुखेश्वर लाल के , नशे की बात का पूछना ही क्या ? दिन चढ़े तक सोता रहता है और जब नींद खुलती है ,तब धरती पर लोट रही बोतल को लात मारकर कहता है--- तू बड़ी बुरी चीज है री ! तूने मेरी जिंदगी ही नहीं, मेरा घर भी बर्बाद कर दिया । पर दूसरे ही क्षण उसे अपनी छाती से लगाकर रोता है, कहता है----- एक तू ही तो है, जो मेरी हृदय-पीड़ा को समझती है ।बाकी घर-बाहर, दोस्त-दुश्मन, सबों ने मुझसे किनारा कर लिया । सच मानो, जब से तुझे गले लगाया, कुछ देर के लिए ही सही, मैं बड़ा सुख अनुभव करता हूँ । तू नहीं जानती, मगर यही कठोर सत्य है, कि दुनिया बड़ी स्वार्थप्रद हो गई है । जब तक मतलब रहता है, तभी तक वह रिश्ता रखती है; मतलब निकलते ही रिश्ता तोड़ लेती है । इतना कहते हुए, सुखेश्वर का कंठ सूखने लगा, वह ’पानी”-”पानी’ बोलकर वहीं धरती पर धड़ाम होकर गिर गया और गिरते ही बेहोशी ने उसे दबा दिया । वह अचेत हो गया । 

              पत्नी कांती यह सोचकर कि, पति का शरीरांत हो गया , वह छाती पीट-पीटकर जोर-जोर से चीखने लगी । माँ का चीखना सुनकर उसका एकलौता बेटा,देवना दौड़ा आया और अचेत पड़े पिता की ओर देखकर ,मुस्कुराते हुए, धरती पर लुढ़क रही संजीवनी प्रदायिनी बोतल उठाकर, उसका ढ़क्कन खोलकर पिता के मुँह में लगा दिया । हलक में बूँद उतरते ही सुखेश्वर उठकर बैठ गया और पत्नी कांति से काँपते स्वर में कहा----इस बार संकट से बचा, तो फ़िर इस हरमजादी को हाथ नहीं लगाउँगा । लेकिन अभी के लिये थोड़ा और दे दो ,मेरे प्राण सूखे जा रहे हैं । पति के रवैये से कांति के नैतिक बल का आधार पहले ही नष्ट हो चुका था ; अत: वह कुछ न बोलती हुई सिर्फ़ इतना कही---- जिसका जीवन-सूत्र क्षीण, इतना जर्जर हो चुका हो, वह कर ही क्या सकती है ? गनीमत है जो अभी तक बहू को पता नहीं चला है, अन्यथा तुमसे जुड़ी कालिमा-सम्बंधी उसके प्रश्नों का मैं क्या जवाब देती ? दुख होता है तुम पर, यह सोचकर कि तुम पर कोई युक्ति, कोई तर्क, कोई टोटका का स्थाई प्रभाव क्यों नहीं पड़ता ? मैं तुमको नीच कदापि नहीं समझती, लेकिन बेसमझ हो, यह कहते दिल नहीं भरता ।

            यद्यपि जमीन पर लेटा हुआ सुखेश्वर का चित अशांत था, लेकिन वह समझ पा रहा था, कि उसकी पत्नी उसको लेकर कितनी चिंतित है । वह वशीकरण की कला में निपुण होकर भी चुप था । लेकिन पत्नी की मुखाकृति को देखकर उसे ऐसा लगा, कि उसके हृदय की अव्यक्त ध्वनि सार्थक हो गई । इधर कांति की शालीनता, उसके लिए विपत्ति बनी जा रही थी । उसे डर हो रहा था, कि तर्क करने से उसके पति की हृदय-गति न बढ़ जाये । उसने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए कहा—नुकसान किसी का नहीं, हर प्रकार से मेरा ही होगा ।

पत्नी की बातों ने सुखेश्वर को तोड़ दिया । उसने आर्द्र दृष्टि से पत्नी की ओर देखते हुए कहा--- यही तो हमारे अपने चाहते हैं कि मैं जीवन भर दर्द से कराहता रहूँ ।

कांति का स्वास्थ्य पहले से भी ठीक नहीं था । इसलिए वह पति के मुँह से इस तरह की करुणा भरी बातें सुनकर और भी बेजान हो गई । उठने-बैठने की भी ताकत नहीं रही, हरदम खोई-खोई सी रहती । न कपड़े-लत्ते की सुधि थी, न खाने-पीने की ; न ही घर से वास्ता था, न बाहर से । जहाँ बैठती , वहीं बैठी रह जाती । न स्नान करती, न ही कपड़े बदलती । जिस बेटे को अपने प्राणों का आधार मानकर , जिसके लिए कृपण बनी, आध पेट खाई, दाँत का रस पी-पीकर दिवस गंवाई, अब वही दुख पर दुख देने को उतारू रहता है  । कांति दिन-रात ईश्वर से यही मनाती है, तकदीर में जितना सुख लिखवाकर लाई थी, वह तो ले चुकी । अब मेरा यहाँ क्या काम, आगे मुझे न ही सुख की लालसा है, और न ही उम्मीद । इसलिए हे ईश्वर ! मुझे अपने पास बुला लो । लेकिन अपने पति के मुख की ओर देखते ही अपना इरादा बदल लेती , कहती---- मेरे पति होश में नहीं रहते हैं । ईश्वर मैं क्या करूँ , ऐसे वक्त में जब सभी अपने-पराये हमसे मुख मोड़ लिए हैं ; इनका जीवन कैसे कटेगा ? मेरे चले जाने से इनका सर्वनाश हो जायेगा । इनको बचाये रखना , मेरा कर्तव्य ही नहीं ,पत्नी-धर्म भी है । इसलिए मुझे अपना शोक भूल जाना होगा ; रोऊँगी,रोना तो मेरे तकदीर में ही लिखा है , लेकिन अपने भाग्य से लड़ूँगी भी । जिस सुख की उम्मीद के सहारे आज तक जिंदी रही, वह सुख सामने से निकल जा रहा है , उसे जाने नहीं दूँगी । इसलिए हे ईश्वर ! तुम मेरे भूले दिनों में भी साथ थे, आज भी रहना ।

            सुखेश्वर का जब खुमार टूटा, देखा, पास बैठी कांति सिसक-सिसककर रो रही है । उसके सिवा वहाँ और कोई नहीं है, तो उसने पत्नी से कहा--- आज कौन सा दिन है ? 

कांति, आँख पोछती हुई बोली---- दो जून बृहस्पतिवार ; फ़िर दीवार का सहारा लेकर उठ खड़ी होने की कोशिश करती हुई बोली—क्यों क्या बात है ? आप दिन जानकर क्या करेंगे , आपके लिए तो सातो दिन समान है ।

सुखेश्वर मुस्कुराते हुए कहा---- नहीं कांति, आज का दिन हमदोनों का मिलन-दिन है । आज ही के दिन मैं तुमको ब्याह कर अपने घर लाया था और शपथ लिया था, अग्नि के सामने कि तुमको मन-प्राण से सदा सुखी रखूँगा । लेकिन रख न सका, सदा ही तुमको रुलाया और आज भी रुला रहा हूँ , मुझे माफ़ कर दो । इस जनम में तो मैं खुद को दो भागों में बाँट लिया था । एक हिस्सा पुत्र को दिया, दूसरा हिस्सा तुमको, लेकिन अगले जनम ऐसा नहीं होगा ; मैं पूरा का पूरा तुम्हारा रहूँगा ।

            पति का हृदयगामी राग, कांति के हृदय को छलनी कर दिया । एक क्षण के लिए सुखेश्वर में योगी की मोहिनी मूर्ति दिखाई दी । वही मस्तानापन, वही मतवाले नेत्र, वही नयनाभिराम देवताओं का सा स्वरूप ; कांति सहमी हुई सुखेश्वर की तरफ़ देखी तो वह प्रेम वेह्वल हो उठा । जिसे देखकर कांति की आँखें भर आईं और सुखेश्वर के चरणों पर आँसू की बूँदें टप-टपकर गिरने लगीं । सुखेश्वर किसी बाज की तरह कांति को झपटकर अपने सीने से लगा लिया |

कांति, बेवशी से काँपते स्वर में बोली ---- तुम मेरे पति हो और प्रियतम भी !  पर तुमने जो मेरी आत्मा को कलंकित किया, उसका उत्तर कौन देगा ?

सुखेश्वर साँस भारी कर कहा---- तुम्हारे प्रश्नों का जवाब मैं नहीं दे सकता , वो तो ऊपर वाला ही देगा । लेकिन इतना जरूर कहूँगा--- आजकल के रिश्ते में स्पिरिट, स्वार्थ रहता है , सभ्यता नहीं, जो संसार के लिए अभिशाप और समाज के लिए विपत्ति है ।


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