मेरा गाँव , भारत के प्राचीनतम गाँवों में से एक है । अपनी गरीबी के लिए ही नहीं, प्राकृतिक और भौगोलिक निर्माण की दृष्टि से भी, लोग मेरे गाँव को अच्छी तरह जानते हैं । शृंगी ऋषि का तपोवन यहीं था ; बावजूद यहाँ एक भी स्कूल ,अस्पताल नहीं है । लोग हर तरह से , शहर पर आश्रित रहते हैं , और शहर हमारे गाँव से लगभग दश कोस दूर है । यातायात के साधन तब भी नहीं थे, और आज भी नहीं हैं । अंग्रेजों द्वारा बनाया गई सड़क, जो कि पूरी तरह भूमिगत हो चुकी है ; अब उसका स्मृतिशेष बचा हुआ है , लोग उसी पर जबरन बस दौड़ाते हैं । ट्रेन से शहर जाने में जहाँ दो घंटे लगते हैं, वहीं बस इस दूरी ्को आठ घंटे में पूरी करती है ; इसलिए लोगों की पहली पसंद रेल है ।
रेलवे स्टेशन हमारे गाँव से पाँच कोस दूर है ; यही कारण है कि , बड़े-बुजुर्गों को छोड़कर बच्चे रेल- गाड़ियों का दर्शन तब तक नहीं कर सकते , जब तक कि उनसे संबंधित किसी कार्य के लिए शहर जाना अनिवार्य नहीं हो जाता । चूँकि मेरे पिता एक रेलवे कर्मचारी थे, इसलिए रेल से उनका रिस्ता रोजाना का था । मैं उन्हीं से रेल के किस्से- कहानियाँ सुना करती थी और उसी अनुभव के आधार पर मैंने तीन लाईना , अपने मनोरंजन के लिए बनाई थी , जिसे गा-गाकर घर के हम सभी बच्चे खेला करते थे । लाईनें इस प्रकार थीं——-
भारतीय रेल , ठेलम ठेल
इसमें चढ़ते बाबू भैया
बिना टिकट लोग जाते जेल
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पिताजी मेरे इन लाईनों को सुनकर, माँ से कहते थे —— ’ देखना, एक दिन यह कवयित्री बनेगी ।’
तब माँ हँसती हुई कहती थी —–’ हाँ, क्यों नहीं, महादेवी बनेगी !’
माँ की ,इस कदर की बातों को सुनकर पिताजी थोड़ी देर के लिए उदास हो जाते थे । फ़िर कहते थे —– देखो, हर आदमी एक जैसा नहीं होता, इसलिए किसी की तुलना, अन्य किसी से मत किया करो ।
मेरे गाँव में आज भी सिर्फ़ सातवीं क्लास तक का स्कूल है । आगे की पढ़ाई के लिए, बच्चों को क्या, लड़के क्या लड़कियाँ, सबों को पास के गाँव (जो कि तीन मील दूर है ) पैदल ही चलकर जाना होता है । मगर मेरे पिता इसके लिए तैयार नहीं थे; उनका कहना था— समय-काल ठीक नहीं है, मैं बेटी को अकेला नहीं छोड़ नहीं सकता ।’ इसलिए उन्होंने मेरा नाम एक बड़े सीटी के नामी स्कूल में लिखवा दिया और रहने के लिए होस्टल की व्यवस्था करवा दिये । अब बारी थी शहर जाने की ; मैं बहुत खुश थी कि, रेलगाड़ी में चढ़ूँगी , वर्षों के मेरे अरमान पूरे होंगे ।
पौष का महीना था, हाड़ को भेदनेवाली ठंढ थी । मैं और पिताजी दोनों काँपते-ठिठुरते सुबह के आठ बजे रेलवे स्टेशन पहूँचे । पिताजी बोले—- ट्रेन में काफ़ी भीड़ होगी, इसलिए जैसे भी हो तुमको चढ़ना होगा । खाली होने का इंतजार मत करना, अन्यथा ट्रेन छूट जायगी । पिताजी के कहे शब्द-शब्द सच निकले; देखते ही देखते स्टेशन पर यात्रियों का उफ़ान सा उमड़ आया । कहीं तिल रखने की जगह नहीं थी ; मैं सोचने लगी—’ क्या होगा, इतने लोग , चढ़ पाऊँगी भी या नहीं, तभी ट्रेन आकर रूकी । लोग इधर-उधर दौड़ने लगे, मैं भी किसी तरह डब्बे में घुसने में सफ़ल हो गई । भीतर डब्बे का नजारा देखते बनता था । सामान रखने की जगह, आदमी लदे हुए थे और जहाँ आदमी बैठने की सीट थी , वहाँ एक दढ़ियल टाँगें पसार कर सो रहे थे । लोगों ने उससे काफ़ी आरती-विनती की, कहा—- भैया
! उठकर बैठिये, लोग खड़े नहीं हो पा रहे, और आप एकाधिकार जमा रखे हैं । इस पर वे काफ़ी क्रोधित हो उठे ,और लगे अपनी बायोडेटा बताने बोले— ’ मैं एक रेलवे कर्मचारी हूँ, मैं जो सीट खाली न करूँ, तो आप कुछ नहीं कर सकते ।’
तभी पीछे से आवाज आई, आप देखेंगे कि हम क्या-क्या कर सकते ? इतना कहते हुए दश-बारह नौजवान ,उस दढ़ियल के पास आये और उनको दोनों हाथ से पकड़कर ,उठाकर बैठा दिये ।यह सब देखकर जो लोग खड़े थे, वे काफ़ी खुश हो गये । अब अगले स्टेशन की बारी थी, हम सभी सावधान थे ; ट्रेन आई, रूकी । देखा, एक दुबली-पतली महिला, अपने दो बच्चों के साथ गिरती-पड़ती, डब्बे में चढ़ी ,और हमलोगों के पास आकर खड़ी हो गई । इतने में गार्ड ने सीटी बजाई, ईंजन चीखी और ट्रेन चल दी । जब तक महिला संभलती, तब तक उसका बड़ा बच्चा हाथ से छूटकर गिर गया । लोगों ने बड़ी मशक्कत से बच्चे को उठाया और दढ़ियल महाशय की ओर इशारा करते हुए कहा —- वहाँ जाकर खड़े हो जाओ । इसके पहले कि दढ़ियल आपत्ति करता, महिला दोनों बच्चों के साथ, जो एक आठ-दश महीने का रहा होगा, उसे गोद में उठाये, और दूसरे का हाथ थामे दढ़ियल के पास खड़ी हो गई । ट्रेन अपनी गति से छिक-छिक करती, ताल के साथ आगे बढ़ने लगी । गाँव, गाछ, नदी, तालाब , सभी पीछे छूटे जाने लगे । कुछ देर तक यात्रियों के बीच गपशप , नोंक-झोंक होता रहा, लेकिन धीरे-धीरे सभी अपनी ही जगह, खड़े-खड़े आँखें बंदकर सो गये । कब मेरी भी आँखें अचेत हो गईं, मुझे पता भी नहीं चला । इस तरह डब्बे में श्मशान की शांति छा गई, तभी किसी के चिल्लाने की आवाज आई । आँखें खोलकर देखी तो ,दढ़ियल चिल्ला रहे थे और महिला बरस रही थी ।
भीड़ ने पूछा—– क्या हुआ ? भाई साहब ! आप चिल्ला क्यों रहे हैं ?
दढ़ियल अपने सफ़ेद शर्ट को रूमाल से झाड़ते हुए कहा— देखते नहीं, क्या हुआ ?
महिला भी कहाँ चुप रहने वाली थी, उसने भी बादल की तरह कड़कते हुए कहा —– ये तो ऐसे चिल्ला रहे हैं, मानो किसी ने इन पर खौलता पानी डाल दिया हो । अरे ! पेशाब ही तो है, वह भी छोटे बच्चे का, क्या आप के बच्चे नहीं हैं ?
महिला का इतना कहना था कि , दढ़ियल महिला को धिक्कारते हुए कहा, शुक्र मानो ईश्वर का, कि तुम एक महिला हो, वरना तुमको मैं दिखा देता ।
भीड़ ने दढ़ियल को शांत करते हुए पूछा —- अच्छा, ये तो बताइये महाशय , बच्चा तो महिला की गोद में है, तो पेशाब भी वहीं किया होगा ? फ़िर आपका सर्ट कैसे गीला हुआ ?
दढ़ियल ने कहा—- देखते नहीं, रेलयात्रा करने निकली है, और बच्चे का पूरा अंग तक नहीं ढ़ँकी है । उसे पेंट पहनाई होती , तो पेशाब उसकी गोद में गिरता । यह तो नंगा है, जिसके कारण ,पेशाब सीधा मेरे ऊपर गिरा ।
दोनों के झगड़े के बीच ट्रेन भागलपुर स्टेशन पर आकर रूक गई ; यहीं हमारी यात्रा का अंत था । लोग जल्दी-जल्दी अपना सामान संभाले । पिताजी भी सामान उठाये, और मुझे चलने बोले । नीचे प्लेटफ़ार्म की भीड़ धक्कापेल थी या जेब-कतरों का सजाया हुआ खेल था; मैं नहीं जानती , लेकिन दढ़ियल से मिलना, यादकर आज भी मुझे रोमांच होता है ।
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