राजनीति का आधार धन
छ: साल का सलवा, दरवाजे पर से बिजली को गति से दौड़ता हुआ आँगन में आया, और हाँफता हुआ अपने पिता बलदेव से बोला, ‘बाबू! बाबू! दरवाजे पर चलो न, तुमसे कोई मिलने आये हैं| कहते हैं, मुझे तुम्हारे पिता से मिलना है|’
बलदेव, चाय पीना छोड़, धीरे से पूछा, ‘वे लोग कौन हैं, कैसे हैं, कहाँ से आये हैं?’
सलवा बोला, ‘यह सब तुम दरवाजे पर खुद जाकर जान लो, मुझे नहीं पता’|
बलदेव, दरवाजे पर जाने से पहले गर्वित हो, पत्नी की ओर एक नजर डाला और जाने लगा, तभी सुनयना (बलदेव की पत्नी), दीवार पर खूंटी से लटके गमछे की ओर इशारा कर कही, ‘क्या जी! बाहरी वालों से नंगे बदन ही मिलने जाओगे? कम से कम एक गमछा तो अपने कंधे पर रख लो|’
बलदेव, गमछा कंधे पर रखकर, जब दरवाजे पर पहुंचा, देखा, दो नेताजी (जीत सिंह और विजय सिंह) मिलने खड़े हैं| बलदेव अवाक, चकित हो उन दोनों की ओर देखा, और हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘माई-बाप! आप खड़े क्यों हैं, मैं अभी कुर्सियाँ लेकर आता हूँ|’
नेताजी, बलदेव से मना करते हुए कहे, बलदेव परेशान क्यों होते हो, हमलोग कोई गैर थोड़े ही हैं? अरे! ये सब लोकाचार अपनों के साथ नहीं करते; फिर भी बलदेव दौड़ता हुआ कुर्सियाँ लाने चला गया| जाकर देखा, कुर्सियों के ऊपर पड़ोस के ही (तीनकौडी और भीखा) बैठे हुए हैं| बलदेव को समझ में नहीं आ रहा था कि इतना बड़ा साहस इनमें कहाँ से आ गया कि अपने ही दाता के आगे, टांग पसार कर चेयर पर बैठे हुए हैं और अन्नदाता खड़े रहें| बलदेव एक नजर इन दोनों को और, और एक नजर नेताजी को देखते हुए मन ही मन कहा, ‘बहुत बड़ा अन्याय हो रहा है|’ नेताजी, बलदेव के मन में चल रहे उथल-पुथल को समझ गए, बोले, ‘बलदेव! उन दोनों को हमने ही चेयर पर बैठने बोला है, इसलिए तुम उन्हें वहीँ बैठा रहने दो|’ बलदेव नजर नीची किये नेताजी के सामने आ खड़ा हो गया, और कंधे पर से गमछा उतारकर जमीन पर बिछाते हुए बोला, ‘सरकार! आपलोग यहाँ बैठ जाइए, यह गमछा नया है, कल ही बाजार से प्याज बेचकर लाया हूँ| मैं आँगन में चाय का इंतजाम कर तुरंत आता हूँ|’
नेताजी, बलदेव को रोकते हुए बोले, ‘बलदेव, आज चाय-वाय छोड़ो; हमलोग किस काम से आये हैं, पहले वह सुन लो|’ बलदेव बोला, ‘बोलिए माई-बाप! फिर डरते हुए पूछा, साहेब! क्या हल जोतने जाना है, तो बताइये, मैं अभी जाता हूँ|’
नेताजी बोले, ‘अरे! नहीं बलदेव, दरअसल देश में वोट की तैयारियाँ शुरू होने वाली है, दोनों पक्ष अपने-अपने दल बनाने शुरू कर दिए हैं| पत्रिका संपादक भी अपनी शांति कुटीर में बैठा हुआ, धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से संभावित उम्मीदवारों पर आक्रमण करने लगा है| मेरी समझ में ये नवयुवक कुछ अधिक ही उद्दंडता दिखाने लगे हैं| तुम जाकर उसे थोड़ा जाकर समझा दो, जिससे कि उसका अव्यवस्थित चित्त शांत हो जाय और आज के युग का ज्ञान भी हो जाय; बस इतना ही काम लेकर आया था| सच मानो बलदेव ये लोग, हमारे सम्पादक नहीं, प्राणघातक शत्रु हैं| उसे बता दो, खाते हो साहेब की बला से, तो खाओगे भी, उन्हीं की दया से|’
यह सब सुनकर बलदेव का मुँह सूख गया| उसने आँखें नीची कर कहा—‘साहेब! इस मुँह को देखकर बिल्ली तो भागती नहीं, और तो और कुत्ते रास्ता नहीं छोड़ते| भला यह पत्रकार, मुझ जाहिल-गंवार की बात क्यों कर सुनेगा?’
बलदेव का यह शब्द, नेताजी को शर सा लगा, तिलमिलाकर बोले, ‘देश सेवा की हथकड़ी तुम जैसे लोगों ने ही मेरे हाथों में डाली है| अब उसकी रक्षा करना भी तुमलोगों का धर्म बनता है, वरना तुझे नहीं मालूम, हारने पर मेरा नाम कितना कलंकित होगा? तुम मेरे घाव पर व्यर्थ नमक नहीं छिड़को| तुमको अकेले नहीं जाना है, तुम्हारे साथ भिखारी और तीनकौडी भी जायेंगे| अब बलदेव को समझ में आया कि नेताजी खड़े और ये दोनों चेयर पर कैसे बैठा है? बलदेव एक बार उनलोगों की ओर नजर घुमाया तो उन दोनों का, देखा हिंसाप्रिय आँखों से प्रसन्नता की ज्योति निकल रही है| ऐसा जान पड़ता था जैसे उसने जीने का असाध्य साधन प्राप्त कर लिया है|’
नेताजी ने बलदेव की पीठ पर कृपापूर्वक हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर बोला, ‘तुम तीनो से मिलकर हमारा चित्त प्रसन्न हो गया| परमात्मा ने तुम्हें देश पर ही नहीं, हम सब पर भी राज करने के लिए जनम दिया है| तुम्हारा धर्म है, कि जिस प्रकार प्रजा की भलाई हो, वह कार्य करते रहना; जाओ, परमात्मा तुम्हारा कल्याण करे|’ इस प्रकार परिस्थितियों ने बलदेव को मार-मार कर एक बुरा आदमी बना दिया| पहले मुश्किलों से लड़ता था, अब मुश्किल खड़ा करने लगा| स्वभाव से भीरु, आदर्शवादी सत्यभक्त तथा अभिमानी, अब निर्दयी, क्रोधी, अत्याचारी बन चुका था| यशवंत (पत्रकार) के बंगले पर जब तीनों पहुँचे, तो घर के भीतर जल रहे चिराग से हल्की-हल्की रोशनी बाहर आ रही थी| रात के नौ बज रहे थे| चिराग की रोशनी में यशवंत ने जब बलदेव को देखा, वह दौड़कर बाहर आया; और गले से लगाया| आधी रात तक चारों में बातचीत होती रही, यशवंत ने पूछा, ‘चाचा बलदेव! आज मेरे घर का रास्ता कैसे भूल आए?’
यशवंत मुस्कुराते हुए बोला, ‘मेरी क्या औकात कि मैं इतनी रात गए आपके पास, आपके काम में विघ्न डालने, बिना पूछे जब कभी आ धमकूं|’
यशवंत जीवन भर पत्रकारिता करते-करते इतना तो अनुभव प्राप्त कर ही चुका था, कि बलदेव चाचा, जो दो जून की रोटी के लिए मुखिया के दरवाजे पर लकड़ी चीरने के साथ अपना कलेजा फाड़ता रहता है| दीनता इतनी कि उसकी तरफ देखने वालों को रोना आ जाए, ऐसे आदमी को एक पत्रकार से भला क्या काम हो सकता है? इन्हें किसी ने भेजा है? पेट की खातिर ये किसी के पास बिक चुके हैं, किसी ने इन्हें खरीद लिया है| यशवंत के आगे सन्नाटा था; वह सोच नहीं पा रहा कि इन्हें मुझसे क्या काम है?
तभी बलदेव ने कहा, ‘यशवंत जी, मैं गरीब, मूर्ख हो सकता हूँ, लेकिन मैंने कभी भी अपने धर्म का त्याग नहीं किया, न करूँगा| ये तो आप भली-भाँति जानते होंगे, मैं जानता हूँ नाम, पर किसी प्रकार का धब्बा लगना संसार में सबसे बड़ी यंत्रणा है| बावजूद मैं यह दावा हरगिज नहीं कर सकता कि मैं धर्म-पथ से कभी विचलित नहीं हुआ| अगर कोई ऐसा है, तो वह मनुष्य नहीं, देवता है और मैं मनुष्य हूँ, इसलिए मैं देवताओं की पंक्ति में बैठने का दावा नहीं करता|’
बलदेव की परिपक्व बातों को सुनकर, यशवंत समझ गए, सदा अमीरों, घूसखोरों के लिए नफ़रत की बोल बोलने वाले बलदेव चाचा, उन्हीं लोगों के प्रति बफादारी का राग, परदे की आड़ लेकर उन्हीं लोगों कि भाषा में बात क्यों कर रहे हैं|
यशवंत ने कहा, ‘चाचा! जब राजनीति का आपको इतना ज्ञान है, तो राजनीति क्यों नहीं अपना लेते?’
बलदेव की शांति-वृति कभी इतनी कठिन परीक्षा में नहीं पड़ी थी, वह बस इतना बोलकर चुप हो गया कि ‘मैं राजनीति से परहेज करता हूँ, मुझे राजनीति करना नहीं आता, लेकिन आप अन्याय और अत्याचार, तथा गुलामी के फंदे में कब तक गिरफ्तार रहेंगे| आप में सुधारने की, स्वतंत्र होने की योग्यता क्यों नहीं आती है? माँ सरस्वती, आपको ज्ञान का भंडार सौंप दी, बावजूद आप जिल्लत की जिंदगी जीना पसंद करते हैं, आप अपनी ज्ञान-बुद्धि देश पर समर्पित न कर, एक नेता के गुण-अवगुण पर क्यों समर्पित कर दिए हैं?’
यशवंत समझ गया, बलदेव के यहाँ आने का मकसद क्या है? उसने बड़ी नम्रता से कहा, ‘बलदेव, अच्छे-बुरे कामों पर विचार करने के लिए आप जैसे लोगों का राजनीति के मैदाने-जंग में जरूरत नहीं है, वरना आपको मैं अपना सलाहकार रख लेता|’
यशवंत की बात सुनकर, बलदेव को रोष आ गया, ‘बोला, आप क्या कहना चाहते हैं, कि मैं अपनी आत्मा बेच आया हूँ, मुझे कर्म और वचन का इख्तियार नहीं है| आपके कुकृति को देखने के बाद मेरे मन में आपके लिए सम्मान की भावना कल अगर नहीं उठे, तो मुझे दोष नहीं देंगे|’
यशवंत बड़ा ही धैर्यपरायण व्यक्ति था| घंटे भर वह बलदेव द्वारा दी गई वेदना को सहता रहता, उसकी सूरत, उसकी व्यथा व्यक्त करती रही, लेकिन मुख से एक शब्द नहीं निकाला| उस कुत्ते की तरह जो अपने पुराने मालिक के सद्व्यवहारों को याद कर, अपनी आत्मीयता का पालन मरते दम तक करता है| यशवंत, बलदेव चाचा से भी बचपन में जो प्यार पाया था; उसे याद कर, इतना कृतिज्ञान पर्याप्त समझता था, किन्तु उसके धैर्य का सेतु टूटा जा रहा था| मन ही मन धिक्कारते हुए कहा, ‘आपके लिए, इन अत्याचारी, भ्रष्ट नेताओं के लिए औचित्य के काँटे पर न तौलकर, स्वार्थ के काँटे पर तौलना आसान होगा| पर मेरे लिए, हम पत्रकार हैं, हमारे लिए धन की खातिर, अधर्मी होना बड़ा ही मुश्किल है, और फिर राजनीति, धन पर आधारित हो, तो उसे राजनीति नहीं कहते, उसे देश का लुटेरा कहते हैं|’
मैं एक दीपक हूँ, मेरा काम है जलना और अंधेरे की जगह उजाले को फैलाना| मैं मौत से नहीं डरता, मेरे सच-कवच को कोई अस्त्र आघात नहीं पहुँचा सकता| मुझ जैसे दीपक को जलने के लिए किसी ओट का प्रयोजन नहीं होता| मेरे पास जितना है, मैं उसमें खुश हूँ, और मेरी ख़ुशी मेरा स्वर्ग है| इसलिए जिन्होंने भी आपको यहाँ भेजा है, मैं उनका आभार मानता है, इतने बड़े नेता होने के बावजूद आपको मेरे घर भेजकर जो मेरा सम्मान बढाया है, उसके लिए चिर-कृतग्य रहूँगा|
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