Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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राखी

 

राखी

पति को ऑफ़िस के लिए विदा करने आई स्नेहा, कमरे के द्वार पर आकर, खड़ी हो गई, बोली---अजी , कुछ मालूम है तुमको ?
पति (सुबोध) उलटकर पूछा--- क्या ?
स्नेहा मुँह बिचकाते हुए बोली---दो-तीन दिन बाद ही राखी आने वाली है , उसके स्वागत के लिए थाल भी तो सजानी है, नहीं तो माँ जी सर पर आकाश उठा लेंगी ।
पति ( सुबोध ) ने बड़ी ही निष्ठुरता के साथ कहा--- आने दो, अभी से तुम क्यों दिक हो रही हो ? क्यों तुम अपने पैने शब्दों से मेरे हृदय के चारो ओर खाई खोदना चाहती हो ?
पति की बातों को सुनकर स्नेहा के हृदय पर हजारों अजगर एक साथ लोटने लगे , उसकी आँखें छलछला आईं । वह काँपते ओठ और विनय-दीन मुखश्री से सुबोध को चुपचाप जाते देखती रही । बाद झटकती हुई अपने कमरे में आई । कमरे के भीतर आते ही , उसके दबे आँसू फ़व्वारे की तरह उबल पडे । वह मुँह ढ़ँककर रोने लगी । जब सिसकियाँ गहरी होकर कंठ तक जा पहुँची, तब उसकी आवाज सुनकर ,सुबोध की माँ दौड़ती हुई स्नेहा के पास आई और उसकी तरफ़ देखती हुई आश्चर्यचकित हो बोली---बहू ,तुम रो क्यों रही हो ? क्या तुम्हारे मैके में सबकुछ ठीक-ठाक तो है ? क्योंकि तुम्हारा रोना बता रहा है , कुछ तो ऐसी बात है जो नहीं होनी चाहिये ! क्या समधी जी की तबीयत ज्यादा बिगड़ तो नहीं गई; अगर ऐसी बात है तो, जाकर मिल क्यों नहीं आती । अपनी नजर से जब ,सब कुछ देख लोगी, तब जी हल्का हो जायगा ।
स्नेहा जीवन में कभी सास की बात का उत्तर देने में देरी नहीं की थी , पर आज यह अभिमानी रमणी परास्त खड़ी थी ,जैसे उसके मुँह पर जाली लगी हो । लेकिन जिस प्रकार कोई गेंद, टक्कर खाकर और जोर से उछल पड़ता है; जितने ही जोर की टक्कर होती है, उतने ही जोर की प्रतिक्रिया होती है । ठीक उसी तरह एक क्षण के बाद ही स्नेहा उत्तेजित होकर सास की तरफ़ गुर्राकर बोली---अगर किसी की आँखें नहीं खुलतीं, तो मत खुले ; मैंने तो बताकर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया । एक दिन आयगा जब मेरी बातों पर सोचने के लिए लोग विवश होंगे ।
सास ( सरला ) विवशता जाहिर करती हुई फ़िर बोली--- जो भी कहना चाहती हो, खुलकर बताओ , बात क्या है ? स्नेहा आवाज में कठोरता लाती हुई बोली--- क्यों, आप को नहीं मालूम ? सरला व्यथित कंठ से कही ---बहू , जो मुझे मालूम होता, तो मैं तुमसे क्यों पूछती ? इसी वक्त डाकिये ने आकर स्नेहा के हाथों में एक लिफ़ाफ़ा रख दिया । पते की लिखावट से स्नेहा को समझने में जरा भी देरी नहीं हुई कि पत्र किसका है ? पढ़ते ही स्नेहा पर नशा छा गया, मुँह पर का तेज इतना लाल हो गया, जैसे अग्नि में घी की आहुति पड़ गई हो । स्नेहा गुस्से में , सास की तरफ़ देखी और चिट्ठी को वहीं टेबुल पर रख दी । सरला को बहू का यह निष्ठुर व्यवहार अच्छा नहीं लगा । वह खुद से लिफ़ाफ़े को फ़ाड़कर पढ़ने लगी । पत्र को पढ़ते ही ,सरला का मन छलांगें मारने लगा । आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं ,दो—तीन दिन बाद,राखी जो आने वाली थी । यह सब देखकर स्नेहा की मुद्रा कठोर हो गई । वह झटपट अपने कमरे में भागती हुई चली गई और बिछावन पर जाकर लेट गई । शाम को जब पति ( सुबोध ) ऑफ़िस से घर आया, देखा---स्नेहा सो रही है , समझ गया, माहौल गर्म है । वह घड़ी भर रूककर स्नेहा के पास गया और धीरे-धीरे स्नेहा का बाल सहलाते हुए पूछा--- क्या बात है भाग्यवान ? आज शाम में सो रही हो ,दिन को मौका नहीं मिला क्या ?
स्नेहा नींद का ढ़ोंग करती हुई भर्राई आवाज में बोली --- चलो, हंटो भी , मुझे सोने दो । सुबोध ने मुस्कुराकर कहा--- ठीक है , सो जाना ; मगर वह बात बताकर,जो तुम मेरे ऑफ़िस जाते वक्त मुझसे कहना चाह रही थी । स्नेहा ने अविचल भाव से कहा---राखी आने वाली है । सुबोध, स्नेहा की बात पर ठठाकर हँस पड़ा और बोला---- राखी आ रही है, यह तो मुझे भी मालूम है , लेकिन इसके लिए तुम क्यों चिंतित हो ?
ज्यों सच और झूठ का पुतला अपने ही सत्य की छाया को नहीं छू सकता क्योंकि वह सदैव अंधकार में रहता है, ठीक उसी तरह स्नेहा, जिसे खुद समझ में नहीं आ रहा था कि वह राखी के आने की खबर जानकर इतनी उग्रसित क्यों है ,तो वह सुबोध को क्या समझाती ? सिर्फ़ इतना बोलकर चुप हो गई ----- हर साल एक खर्च का घर है , तभी किसी की छाया भीतर कमरे में आती दिखाई दी ।
सुबोध तत्परता से खड़ा होते हुए, पूछा – कौन ?
छाया , आकर सुबोध के पैरों पर झुक गई और बोली – भैया, मैं राखी ।
सुबोध बहन को पाकर गले से लगा लिया और बोला--- बहन, तुमने मेरे जीवन को अवलम्ब दिया है, दिशा दिखाई है, अन्यथा मैं निरुद्देश्य ही घूमता रह जाता । तुम मेरी माँ हो और पिता भी ।
राखी मुस्कुराती हुई बोली---और राखी भी ।
स्नेहा आँखें बंद किये राखी से कहती है---लेकिन रक्षा-बंधन तो कल है , तुम्हारा आज कैसे आना हुआ ?
राखी, भाभी की ओर करुण दृष्टि से देखती हुई बोली --- कल तो तुम ,मेरे भैया के साथ, अपने भाई को राखी बाँधने मैके चली जावोगी, तब मैं किसे राखी बाँधूँगी । भाभी मुझे माफ़ करना, इसीलिए मैं आज ही चली आई ।


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