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रामधारी चाचा

 

रामधारी चाचा

गंगा की उमड़ती धारा में प्रभासित हो रहे अवशेषों को अपने साथ खड़े मित्र विनय को, दिखाते हुए सलीम सिसक उठा। विनय के पूछने पर, सलीम ने बताया---- विनय! ये जो अस्थियाँ नदी के धार संग बही जा रही हैं, यह कोई स्वर्गीय अवशेष नहीं है, बल्कि कभी यह मेरी-तुम्हारी तरह जीता-जागता इन्सान था। शायद यह बात स्वीकारना तुम्हारे किए कठिन और भयानक हो रहा होगा, लेकिन यही सच है, और प्रत्यक्ष सच को कल्पना मानकर झुठलाया नहीं जा सकता।

विनय, विस्मय से सलीम की आँखों में देखते हुए पूछा---- सलीम! तुम्हारे कहने का मतलब क्या है, क्या तुम इस अवशेष को जानते हो?

सलीम, अपनी आँखों के आँसू दोनों हाथों से पोछते हुए बोला---- क्यों नहीं, मैं इन्हें बचपन से जानता हूँ।

विनय कँपकपाती आवाज में सलीम से पूछा---- कौन हैं ये?

सलीम गर्व से सीना तानते हुए कहा------ धर्म और सदाचार का भार उठाकर घूमने वाले रामधारी चाचा हैं ये। फ़िर बरसात की भींगी लकड़ी की तरह सुलगते हुए सलीम ने कहा----- जानते हो विनय; उनका हृदय धन के अभाव के कारण पुण्य में परिणत नहीं हुआ था, बल्कि वे तो जन्म से संत थे। बावजूद, इस संसार की निर्मम छाती पर किसी घायल पक्षी की तरह वे जब तक जीवित रहे, छटपटाते रहे और जब उनकी पत्नी का स्वर्गवास हुआ, तब से आज तक उन्होंने कभी मांस या मदिरा को नहीं छुआ, न ही आत्मा को अपने गले की जंजीर बनने दिया, बल्कि वे तो उन आदमियों में थे, जो जिंदगी की जंजीरों को ही, जिंदगी की जंजीर मानते थे। उनकी सोच थी, जिंदा रहने के लिए ऐसे उदार दिल का होना अति आवश्यक है, जिसमें दर्द हो, त्याग हो और सौदा हो। चाचा अंतिम साँस तक बिंदू चाची का होकर जीये। उनका कहना था, असली मुहब्बत वह है, जिसकी जुदाई में भी विसाल है। ऐसी मुहब्बत अपने प्यार से आसमां की दूरी होकर भी उसके गले से मिली हुई, दीखती है। 

सलीम की बातें सुनकर विनय शांत भाव से कहा----- सलीम! राम चाचा जब विधुर हुए, तब उनकी उम्र क्या रही होगी?

सलीम बिना देर किये जवाब दिया---- वही 30, 35 की रही होगी।

विनय अनुरोध का भाव लिए फ़िर पूछा----- तो उन्होंने दूसरी शादी क्यों नहीं की? यह भी उमर है, विधुर रहकर जीने की। उन्हें दूसरी शादी कर लेनी चाहिए थी।

सलीम, व्यथित होकर बोला----- लोगों ने उन्हें बहुत समझाया, कहा----’ अपने लिए नहीं तो इन छोटे-छोटे बच्चों की खातिर ही सही, कोई कुलीन लड़की देखकर तुम दूसरी शादी कर लो’। लेकिन चाचा, यह कहकर टाल गये कि बिंन्दू की जगह मैं किसी को नहीं दे सकता। तब से दोनों बच्चों को वे खुद पाले, बच्चों की देख-रेख के लिए कभी कोई आया नहीं रखे, न कभी अपने बेदाग आचरण पर दाग लगने दिये। सारा जीवन, यौवन की अग्नि को निर्वेद की राख से ढ़ंककर रखे हैं और अंग पर ब्रह्मचर्य की रूक्षता लिये रहे।

विनय---- तो रामधारी चाचा, बड़े ही धर्म-परायण मनुष्य थे?

सलीम उत्तेजित हो बोला----- इसमें भी कोई शक है!

वे अपने दोनों संतान से बहुत खुश थे, लेकिन ज्यों-ज्यों दोनों बड़े होते गये, उनके भाग्य की कूटनीति-द्वेष धारण करने लगी और जब दोनों ऑफ़िसर बनकर, अपनी-अपनी पसंद की लड़की के साथ शादी कर लिए, तब एक दिन अपने दीन पिता के बुढ़ापे से ऊबकर दोनों ही घर छोड़ दिये। चाचा ने पुत्रों की घृणा और तिरस्कार की धधकती आग को, राख के नीचे दबाने की बहुत कोशिश की, मगर सब व्यर्थ गया।

चाचा अपने प्रति दोनों बेटे का बैमनस्य देखकर कभी-कभी रो लिया करते थे। बावजूद उनके हृदय में दोनों पुत्रों के प्रति बहुत प्रेम था, पर उनके नेत्रों में अभिमान मैंने कभी नहीं देखा। 

विनय चकित होकर सलीम से पूछा---- ऐसा क्यों?

सलीम ने कहा---- इसलिए कि कुल-मर्यादा की बात थी; हृदय चाहे जितना रोये, होठों पर हँसी रखते थे।

विनय अधिकार पूर्ण स्वर में फ़िर कहा---- नकली हँसी रखने से क्या दिल की असली खुशी लौट आती है?

विनय के मुँह से इस कदर की बातों की उम्मीद सलीम को कतई नहीं थी, इसलिए उसके प्राण-मन, दोनों सूख गये। उसे विनय से ऐसी धृष्टता की आशा नहीं थी। उसने उदास होकर कहा----- जानते हो विनय, जिस धर्म में मानवता को प्रधानता नहीं दी जाती; मैं उस धर्म को नहीं मानता। इस्लाम का मैं इसलिए कायल हूँ, कि वह मनुष्य मात्र को एक समझता है; ऊँच-नीच का वहाँ कोई स्थान नहीं है, लेकिन जो स्वार्थ और लोभ के लिए धर्म करते हैं, ऐसे रक्त-शोषक किसी भी धर्म का भक्त नहीं हो सकते।

विनय चकित होकर पूछा---- तुम किसकी बात कर रहे हो सलीम?

सलीम आर्द्र हो कहा----- वही चाचाजी के दोनों संतान की। चाचा दोनों पुत्रों की देख-रेख और पढ़ाई-लिखाई के लिए किस-किस तरह पैसे उपार्जन किये, मैं क्या –क्या बताऊँ, आधा पेट खाये, अपने सिद्धान्तों से हटकर जीये। घी में सड़ा आलू मिलाये, हल्दी के बुरादे में ईंट, चाय की पत्तियों में काली सरसों, चावल में कंकड़ और तेल में मिर्च और न जाने क्या-क्या पाप किये, लेकिन जब कोई उनसे पूछता था-----’ चाचा, ऐसा आप क्यों करते हैं? तब वे यह कहकर अपना पाप हल्का करने की कोशिश करते थे, कि व्यापार और व्यवहार में, किया गया छल-कपट पाप नहीं होता। ऐसे त्यागमय मूर्ति को दोनों पुत्रों ने इस कदर भुला दिया, जैसे गर्द में गिरने के बाद लोग झाड़कर अपने से अलग कर देते हैं। उनके पुत्रों का कहना है, ’लोग हमारे पिता को पापों की गठरी कहते हैं। हम इस कालिमा को इनके साथ रहकर कब तक धो्ते रहेंगे। इसलिए इन्हें अपने आत्मसुधार का अवसर देते हुए, हमलोगों ने इनसे दूर रहने की सोची है।’ और तब के गये आज तक, दोनों में से कोई भी लौटकर नहीं आये। फ़िर अफ़सोस करते हुए सलीम ने कहा------ ’बेईमान दुनिया’।

विनय दुखी हो धीमे स्वर में कहा----- इसका मतलब, तुम यह समझते हो, कि भारत की आत्मा, जिसे हम संस्कार कहते हैं, वह मर गया। नहीं तुम्हारी यह सोच गलत है, भारत की आत्मा आज भी जीवित है तुम जैसों में। सेवा और त्याग का पुराना आदर्श भारत से, थोड़ी देर के लिए ओझल जरूर हुआ हो, मगर मिटा नहीं है। इतना कहते विनय की आँखें, चाचा की भसती जा रही अस्थियों को देखकर छलक आईं और भरे कंठ से कहा-----मनुष्य अग्यात प्रदेशों से आकर इस संसार में जन्म लेता है, फ़िर अपने लिए स्नेहमय संबल बनाता है, लेकिन यह संबल सुखकर न होकर कभी, दुखकर भी हो सकता है। मैं सदैव इन बुरी बातों से दूर भागता रहा; इसे मैं अपना सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य, कुछ समझ नहीं आता।

सलीम, आँसू भरी आँखों से विनय की ओर देखते हुए कहा----- विनय! ऊपर आकाश की तरफ़ देखो, दक्षिण का आकाश धूसर हो चला है, पक्षियों का कोलाहल बढ़ने लगा, अंतरिक्ष व्याकुल हो उठा है; कड़कड़ाहट में सभी जिंदा रहने का आश्रय खोजने लगे हैं, लेकिन अंधकार का साम्राज्य बढ़्ता ही चला जा रहा है। देखना, थोड़ी देर में कंपित हो रहे तृण, लता, तरु, वृक्ष आँखों से पूरी तरह ओझल हो जायेंगे। बची रह जायगी सिर्फ़ उनकी यादें, जैसे रामधारी चाचा, मौत की कालिमा में गुम होकर भी, समय की कोख में सदा जिंदा रहेंगे।

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