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Dr. Srimati Tara Singh
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रसखान

 

रसखान

                    रीतिकाल में दो कवियों की चर्चा अलग से की जाती रही है | एक कृष्णभक्त रसखान , जो वस्तुत: कृष्णभक्ति शाखा के कवि हैं : पर उनकी सरल ब्रजभाषा और सवैयों की माधुरी ने रीतिकाल के श्रृंगारी कवियों को भी प्रभावित किया | रसखान के सवैये, रस की खान हैं | कृष्ण भक्ति में दिन-रात सरावोर रहने वाले इस मुसलमान की भाषा का जादू सबके सर चढ़कर बोलता है | रसखान की रचनाएँ रीतिमुक्त धारा के अंतर्गत भी स्थान पाने में सक्षम हैं | दूसरे, कृष्ण प्रेम के मतवाले रीतिमुक्त कवि थे घनानंद , जो अपने सरल, सुन्दर ,हृदयस्पर्शी मार्मिक प्रेम -व्यंजना और प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं | घनानन्द की भाषा में माधुर्य और प्रसाद दोनों गुण समान रूप में हैं | मगर रसखान में माधुरी गुण ,घनानंद से अधिक है | कृष्णभक्त रसखान का पूर्व जीवन, लौकिक प्रेम के अनुभव से पूर्ण रहा और परवर्ती जीवन में उस पूर्वानुभव की तीव्रता और सघनता ही कृष्ण प्रेम में परिणत हो गई |

               रसखान की जन्मतिथि व स्थान को लेकर विद्वानों के अलग -अलग मत पढ़ने मिलते हैं | कई तो दिल्ली ( पिहानी 1615 ) मानते हैं , तो कुछ विद्वान 1636 | उन्होंने स्वयं लिखा है , ग़दर के कारण दिल्ली श्मसान बन गई ; तब वे दिल्ली छोड़कर ब्रज चले गए | ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार ग़दर सन 1613 में हुआ था , इससे अनुमान किया जा सकता है , कि अगर उनका जन्म 1613 में हुआ और ग़दर 1630 में, तब निश्चय ही उस बख्त वे वयस्क रहे होंगे , तभी ब्रज जाने में समर्थ रहे | वहाँ वे विट्ठलनाथ से दीक्षा लेकर कृष्ण भक्तिमय जीवन व्यतीत किये | ‘प्रेम-वाटिका ‘सं० 1677’ में कवि का आत्मोल्लेख

इस प्रकार है ----------

           देखि ग़दर हित साहिबी  दिल्ली नगर मसान 

           छिनहिं बादसा बंश  की उसक छोरि रसखान 

           प्रेम  निकेतन  श्रीबनहि  आई गोवर्धन धाम 

           लखौं सरल चित्त चाहिकै जुगल स्वरूप लगाम 

           तोरि  मानिनो  ते  हिये ,फोरि मानिनी मान 

           ऐ सदेव की छविहिं लखि ,भये मियां रसखान 

                    जन्मकाल तथा जन्मस्थान की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के सम्बंध में भी अनेक मत हैं | महावीर प्रसाद द्विवेदी जी अपनी पुस्तक में लिखते हैं , रसखान के दो  नाम थे---- (i) सैय्यद इब्राहिम व (ii) सुजान रसखान ,जब की सुजान, रसखान की एक रचना का नाम है | नवलगढ़ के राजकुमार संग्राम सिंह जी द्वारा प्राप्त रसखान के चित्र पर नागरीलिपि में भी एक स्थान पर ‘‘रसखाँ” ही लिखा पाया गया है | इन सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि रसखान ने अपना नाम रसखान सिर्फ इसलिए रखा था कि वे अपनी कविता में प्रयोग कर सकें | कारण, फारसी कवियों की यही परम्परा रही कि वे अपनी परम्परा का पालन करते हुए अपने नाम खान के पहले ‘रस’ लगाकर स्वयं को रस से भरे खान या फिर रसीले खान के साथ काव्य की रचना कर सकें | उनके जीवन में रस की कमी नहीं थी | पहले वे लौकिक रस का स्वादन करते रहे, बाद अलौकिक रस में लीन होकर काव्य रचना करने लगे | ‘रसखाँ’ शब्द का प्रयोग भी मिलता है ------

             नैन दलालनि चौहटें म मानिक प्रिय हाथ 

             ‘रसखाँ’ ढ़ोल बजाई के बेचियाँ हिय जिय साथ ||

उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका नाम सैयद इब्राहिम तथा उपनाम रसखान था | 

        उनके पिता एक जागीरदार थे | इसलिए उनका बचपन उनकी शिक्षा अच्छी और उच्च कोटि की रही थी | उनको हिंदी के अलावा फ़ारसी, संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान था , जिसका प्रमाण , भागवत गीता का अनुवाद, उनका फारसी में करना है | रसखान की दो  कविता-संग्रह प्रकाशित हुए---(i) ‘सुजान रसखान’ (ii) ‘प्रेमवाटिका | सुजान रसखान में 139 सवैये और कवितायें हैं ; प्रेम वाटिका में 52 दोहे हैं . जिनमें प्रेम का बेजोड़ वर्णन उद्धृत हुआ है | रसखान के सवैये अपनी माधुरी , पद-योजना और छंद भंगिमा में अपूर्व हैं | अपने रसीले सवैये के बल पर ही वे असंख्य पाठकों के कंठहार बने , ब्रजभाषा का ऐसा सरल, तरल, स्वच्छ और गतिशील रूप विरले कवियों के काव्य में सुलभ है | लगता था, यह भाषा मानो, उनकी अपनी भाषा हो | इससे ज्ञात होता है कि उस समय तक मुसलमान . लोकभाषा के रूप में इस देश को बोलियों को स्वीकार करते थे | ब्रज भाषा कृष्ण भक्ति की भाषा थी , और वे एक सच्चे कृष्ण भक्त थे | अत: ब्रजभाषा में लिखने का यह भी एक कारण हो सकता है | 

             कृष्ण भक्त अन्य कवियों की तरह रसखान ने कृष्णजी की रसभरी लीलाओं का वर्णन किया है | उन्होंने अपने पदों में कृष्ण और राधा की होली को बड़े ही विस्तार से और ह्रदय लुभावन शब्दों में किया है | उन्होंने कहीं भी शब्दों की चमत्कारी दिखाने के लिए अलंकारों को बरबस ठूसने की चेष्टा नहीं की है ; न ही बेमतलब उसे दूर तक खीचने का व्यर्थ प्रयास ही किया है | औचित्य के अनुसार ठीक समय पर उसका त्याग कर दिया गया है | यही कारण है कि उनका कला-पक्ष निखर आया है | वे भक्ति रस के अनेक पद लिखे, मगर वे प्रमुख रूप से श्रृंगार के कवि हैं | हिंदी साहित्य का भक्ति युग (संवत 1375 से 1700 वि० तक ) हिंदी का स्वर्णयुग माना गया है | इस युग में विद्यापति ( 


जन्म 1350 ई0 ), कबीरदास , मल्लिक मुहम्मद , जायसी , सूरदास ,नंददास , तुलसीदास , केशवदास आदि ने अपनी अनूठी काव्य-रचनाओं से साहित्य के भंडार को सम्पन्न कर दिया | 

              उनकी रचनाओं में कृष्ण की विहार-भूमि वृन्दावन , करील-कुंज , कालिंदी नदी आदि का विषद वर्णन, 

 प्रकृति की सहचरी के रूप में मिलता है | संयोग और वियोग, दोनों ही पक्षों को रसखान ने मानव भावनाओं की पोषिका के रूप में दर्शाया है | उन्होंने ब्रजभाषा में जिस सरलता और उत्तमता से अपने ह्रदय के भावों को उड़ेला है, अन्यान्य कवियों के लिए सरल नहीं था |

            कहते हैं , एक बार वे भागवत कथा सुनने गए थे | उन्होंने , वहां पास रखा हुआ भगवान श्रीकृष्ण की एक तस्वीर देखी, जो उनके नयनों के माध्यम से दिल में इस कदर उतरकर अपना जगह बना ली , कि उन्होंने महर्षि व्यास से पूछा --- इनसे मिलाने के लिए मुझे कहाँ जाना होगा ? व्यास जी ने बताया---इनसे मिलने के किए ब्रज जाना होगा और तत्क्षण वे ब्रज के लिए रवाना हो गए | वहाँ पहुँचकर वे वृन्दावन के जड़ , जीव, चेतान और  जंगल में आत्मानुभूति की आत्मीयता देखी और वहीँ का होकर रह गए | 

     कहा जाता है, भगवान श्रीकृष्ण, वहीं गोविन्द कुंड में रसखान को को स्नान करते समय, सशरीर दर्शन दिए | तब से रसखान रसखानि हो गए | उन्होंने भगवान राधारमण से यही कामना की , कि ‘प्रभु ! इस जग से, जब मैं अंतिम विदा होने लगूँ , तब मैं आपको अपने पास पाऊँ , और मरकर यदि मानव -जन्म लेना हो , तो जन्म ब्रज में देना’ | और यही हुआ भी, कहते हैं ,रसखान का प्राण, भगवान के सम्मुख निकला जो, रसखान जैसे भक्तों के लिए अति सौभाग्य की बात है |    

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