सभ्यता के रुधिर से निकली, वह ग्यान ज्योति कहाँ है
सोचती हूँ मैं दिन - रात
सब कुछ है मनुज के पास
फिर भी लगता क्यों खाली-खाली
कहाँ गई वह ग्यान ज्योति
जो सभ्यता के रुधिर से निकलती थी
करती थी जो मनुज मन की रखवाली
अंधकार के संग दिन भागता दिखाई देता
ज्यों-ज्यों समय बढता,हाहाकार सुनाई पड़ता
लगता धरती पर आने वाली है कोई बड़ी
विपत्ति नभ से, चन्द्रमा महीनों गायब रहता
सूरज से रोशनी कम, अग्नि अधिक बरसता
ज्योति सीमातीत होकर भी अंधता फैलाती
नव - नव भूतों से सम्पन्न धात्री रहती
लगता देवलोक में जाकर ध्वज फैलाना
अबोध मनुज के जीवन पर भारी पड़ गया
तभी तो चतुर्दिक आग दिखाई पड़ती, जहाँ
कुंजों में पहले से थी थोड़ी सी छाँह बनी
वहाँ जीवित अग्नि ज्वाल की ज्वाला है बहती
अब इस जग का कल्याण नहीं है प्रकृति से
विमुख रहनेवाला मनुज को दुख से त्राण नहीं है
मूढ मनुजों ने सोचा था प्रकृति को
बदल दूँगा , अपना एक लोक बनाऊँगा
जिस पर तृष्णा का पंकिल तरंग बहने नहीं दूँगा
वसुधा को मरु में बदलने नहीं दूँगा इसके लिए
अपनी आग, अपना पानी, अपना सूरज बनाऊँगा
मानवता के नहीं , अपनी महिमा के ये अभिमानी
सभ्यता के बदलते -बदलते खुद ही इतना बदल गए
कि अपने ही आत्म देवता के आगे अस्पृश्य हो गए
विचारों की खूब हलचल हुई,शांति के नए-नए आधारों
पर खोज हुए,शांति इस महीतल पर किस क्षितिज से
आती है, फिर कहाँ चली जाती है, विश्व मनुज का
जन्म कहाँ से होता है, इसे खोजने निकल पड़े
पाप - पुण्य,स्वर्ग-नरक की लड़ी, तो पहले ही
तोड़ आए थे मनुज,अब तो सीधे–साधे लोगों को
यह कहकर बहकाना था कि नीचे खिलते फूल
ऊपर जगमगाते , हमको तो दोनों लगते प्यारे
मगर ये तारे, जमीं से ऊपर क्यों बने, हमें
क्षितिज का वक्ष फाड़कर उसे जानना है
मगर मनुज नहीं समझता, जगत में जो दाह है
उनके ही अभिमानों के तरु का फल और फूल है
भय से मुक्ति नहीं मिलती, मुक्ति का मोल होता है
क्षितिज का द्वार तोड़कर भी, शंका की आग नहीं
बुझेगी ,बल्कि धीरे-धीरे इस आग में यह संसार
भस्म हो जायेगा, मनुज कृत प्रलय में दब जायेगा
ऐसे ही खंडित हो रही है मही शैल से, सागर से
और रेखाएँ खींचकर मही को मत बाँटो तुम्
भू के मानचित्र पर मनुज तसवीरों में अंकित रहे
क्यों यही चाहते तुम ,तुम्हारे हुंकारों से मही नहीं
अम्बर भी बर्वाद हुआ, विश्व की भूमि पट गई
अश्रु की धारों से, सूख गए सर - सरित
क्षार निस्सीम जलधि का जल है, कुमुद फूल
अग्नि लपटों में कराहें,क्या यही चाहते थे तो तुम
रंगों के मोहक पाश को तोड़ने,जब-तब ज्वालामुखी जलाते हो
जो आग धरा पर जलती है, उसे सुरपुर तक छोड़ने जाते हो
निज हृदय की लगी आग के ताप में दुनिया को झुलसाते हो
सोचते हो, तुम्हारे अन्तर्मन को जला रही जो आग उसकी
चिनगारी बादलों में तड़ित बनकर नभ में छिपी रहती है
इसलिए बारिस की बूँदों संग अग्नि नीचे गिरता है
तुम्हारे मन के भीतर जो आग लगी है,जिसकी
लपटें धरा से गगन तक को जला रही है
लगता है यह तुम्हीं तक सीमित नहीं रहेगी
इस आग की पाँत आगे भी बिछने वाली है
साफ कौंधती है इसकी झलक घोर घटाओं पर
सींधु गरज रहा है मुँह उठाकर उधर,जहाँ से विश्व के
नाद लौट आते टकराकर, कह रहा है
तुम भी एक दिन मर जाओगे मेरी तरह बिखरकर
क्योंकि मनुज मिटाना चाहता है अपनी क्लांति
क्षितिज के पास जो सरोवर है कंचन का, उसमें उतरकर
ऊपर रह जायेगा केवल धुआँ का जाल, जो भावनाओं
से अनुमान होगा कि कुछ तो है, हमारे आँखों से ऊपर
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