Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सच्ची श्रद्धांजलि

 

सच्ची श्रद्धांजलि


            दोपहर के दो बज रहे थे| मनोहरदास हाथ-मुँह धोकर तकिये के सहारे बैठा, खाने का इंतज़ार कर रहा था| तभी छोटा बेटा, अग्निवेश, बच्चों के साथ खेलकर थका-परेशान उसकी गोद में आकर बैठ गया, और बातों ही बातों में पूछ दिया, ‘पिताजी! आप सारा दिन काम करते हैं, फिर भी थकते नहीं क्यों? मैं भी आपकी तरह दिन भर खेलता हूँ, फिर भी नहीं थकता|’

मनोहरदास हँसता हुआ बोला, ‘ऐसी बात नहीं है बेटा! काम का बोझ, कभी-कभी मुझे थका भी देता है|’

अग्निवेश, पिता की ओर घूमकर देखते हुए, फिर पूछा, ‘तब क्या करते हैं?’

मनोहरदास उदासीन भाव से बोला, ‘कुछ देर बैठकर, फिर उदरपूर्ति करता हूँ और क्या करूँगा? फिर मन ही मन भिनभिनाया, कहा, तुम्हारी तरह मेरे माता-पिता तो हैं नहीं, दूसरा कोई मुझे अपनी गोद में बिठाकर क्यों आराम करने देगा?’

अग्निवेश एक अपराधी सा मुँह लिए रुआंसा हो बोला, ‘आप अपने पिता की गोद में क्यों नहीं बैठते पापा? क्या वो बैठने नहीं देते? ऐसा है तो आप माँ की ही गोद में बैठिये| जानते हैं, जब आप घर पर नहीं होते हैं, तब मैं, माँ की गोद में बैठता हूँ|’ 

बेटे की बात सुनकर, मनोहरदास की आँखों से आँसू टपक-टपककर धरती पर गिरने लगे| वह वेदना जो अब तक मूर्छित पड़ी थी, शीतल जल के इन छीटों को पाकर सचेत हो गई, और सारे अंगों को छेद दिया| इसी पीड़ा को दबाये रखने के लिए, तो वह माँ की स्मृति को खुलकर कभी नहीं छेड़ता था| उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई भिखारिन माँ, अपने बच्चे को इसलिए जगाने से डरती हो कि वह तुरंत खाने को माँगेगा|

पिता की आँखों के गर्म आँसू की बूँदें, अग्निवेश को बुरी तरह डरा दिया| उसने पिता की आँखों के आँसू पोछते हुए बोला, ‘पिताजी भूख लगी है, जो आप रो रहे हैं?’

मनोहरदास, अपने पुत्र अग्निवेश की ओर देखा, तो पता नहीं क्यों, उसका पितृह्रदय उसे गले लगाने के लिए आतुर हो उठा और दोनों ह्रदय प्रेम के सूत्र में बंध गए, एक ओर पुत्रस्नेह था, तो दूसरी ओर पितृभक्ति|

मनोहरदास का ह्रदय, मातृभक्ति की याद में अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाने के लिए, जाने कब से, उसकी आत्मा तड़प रही थी| वह अपने कृपण ह्रदय में जितना प्रेम संचित कर रखा था, आज वह माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध की भाँति निकलने के लिए आतुर हो गया| वह सर झुकाकर रोने लगा| वे सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में, माँ के प्रति (जब जीवित थे) उठते रहते थे, वे सारे कटु वचन जो उसने गलती से कहे थे; इस समय सैकड़ों बिच्छू के समान डंक मार रहे थे| हाय मेरा इतना बुरा व्यवहार कभी उस प्राणी के साथ था, जो गंगा लिए तरह पवित्र, और सागर सा गंभीर था, जब कि उस ह्रदय में मेरे लिये इतनी कोमलता थी कि मैं जब कभी उसके हाथ में एक ग्लास पानी पकड़ा देता था, तो वह कितनी मजबूर आँखों से मेरी तरफ देखती थी| बीती बातों को यादकर उसका कलेजा फटा जा रहा था| आज उन चरणों में सर रखने की प्रबल इच्छा, उसे ह्रदय से आत्मा तक को रुलाये जा रही थी| वह सोचने लगा, मुझ जैसा पुत्र का होना, एक माँ के लिए कलंक है| मेरा प्राण निकल क्यों नहीं जाता; सोच-सोचकर मनोहरदास का कलेजा, छाती फाड़कर बाहर निकल जाना चाहता था|

              जाड़े की संध्या थी, जोर की बारिश हो रही थी| दिन ढलने से पहले ही अंधेरा अपना भयावह रूप धारण कर लिया था| दरवाजे पर खड़े अमरूद के पेड़ की पत्तियाँ, हवा में काँपती हुई सरसराहट की आवाज निकाल रही थी, मानो कोई आत्मा पत्तियों पर बैठी सिसक रही हो| सुनकर मनोहरदास काँप गया, उसे लगा कि पेड़ की आढ़ में मर्माहत सी खड़ी, उसकी माँ से मिलती-जुलती कोई आकृति, उसकी ओर बढती चली आ रही है| उसकी ख़ुशी की सीमा नहीं रही, उसने तय किया, मुझे अब अपना अधम जीवन, माँ की पुण्यात्मा के साथ गुजारना चाहिए| मैंने सदैव इसका निरादर किया है, सोचते-सोचते मनोहरदास का शोकोद्गार, जो अब तक भय के नीचे दबा जा रहा था, उबल पड़ा| वह अपनी माँ की आकृति के हाथों को अपने गले में डालने के लिए अधीर हो आगे बढ़ा, तभी उधर से एक मोटर गाड़ी गुजरी, देखकर वह हक्का-बक्का रह गया| उसने देखा, एक गाय कहीं से भटकती हुई ठंढ से बचने के लिए वहाँ आश्रय तलाश रही है| देखकर उसकी सारी मनोव्यथा, जो अब तक उसका रस चूस रही थी, छू मंतर हो गई| उसे लगा कि अब तक वह, बेकार भार को अपने ऊपर लादकर रुढियों, विश्वासों के मलवे के नीचे व्यर्थ दबा जा रहा था|

            वह अपनी ही दुनिया में खोया हुआ था कि अचानक उसके कानों में आवाज आई, ‘रान नाम सत्य है|’ उसने पीछे मुड़कर देखा, कई मनुष्य एक लाश को अपने कंधे पर उठाये चले जा रहे हैं| देख, उसके पाँव वहीँ ठिठककर रह गए| वह मूर्ति की भाँति खडा सोचता रहा, ‘क्या तृषावृत अँधेरे में भी, विधाता का कालचक्र चलता रहता है?’ उसने अंतिम यात्रा में चल रहे एक आदमी को रोककर पूछा, ‘कौन जा रहा?’ 

उसने कहा, ‘मेरी माँ|’ सुनते ही उसके मुंह से निकल पड़ा, ऊपरवाले तुम्हारे कठोर करुणा की जय हो! जिस माँ को लोग अपने प्राण से भी ज्यादा प्यार करते हैं, उसे एक दिन, अपने ही हाथों, आग के हवाले करना होता है| क्या विडम्बना है? कितनी क्रूर परम्परा है? बोलकर वह एक आज्ञाकारी बालक की भाँति घर के भीतर चला गया और गद्दे पर लेट गया| मगर उसकी आँखों में पूर्वावस्था की करुण स्मृतियाँ स्वप्न की भाँति आने लगीं| 

             सुबह हुई तो उसकी दशा और खराब हो गई| तेज बुखार आ गया, आँखें चढ़ गईं; न हँसता था, न बोलता था, बस चुपचाप पड़ा रहता था| यह सब देखकर उसकी पत्नी सुधा घबड़ा गई| उसने पूछा, ‘अजी, आपको क्या हो गया है, कुछ बताते क्यों नहीं? सुबह के दश बज चुके हैं, एक बार के लिए भी आप हिले तक नहीं| मनोहरदास ने आँसुओं के आवेग को रोकते हुए अनमने ढंग से कहा, कुछ नहीं हुआ है, तुम अपने घर का काम देखो!’

सुधा, ‘पति के आज्ञानुसार, गाय को चारा डालने बथान पर चली गई|’ कुछ देर बाद जब लौटी, देखी, ‘मनोहरदास यथावत अपनी जगह है; देखकर सुधा और कुछ पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सकी| वह संज्ञाशून्य हो गई; आत्मवेदना आरे के समान उसके ह्रदय को चीड़ने लगा| उसने साहस जुटाकर मनोहरदास की ओर सजल आँखों से देखा और अधीर होकर पति के सम्मुख जाकर बैठ गई, बोली, ‘देखो मनोहर, न ही तुम अपनी चिंता का कारण बताते हो, और न दिन के ग्यारह बज गए, हाथ-मुँह धोकर नास्ता करते हो| तुम जैसे बुद्धिमान आदमी के द्वारा एक निर्मूल, कल्पित संभावना के पीछे अपना दाना-पानी देना छोड़ देना बड़े खेद की बात है|’

             मनोहरदास का गौरवशाली ह्रदय प्रत्युत्तर के लिए विकल हो उठा, मगर फिर सोचा, इस कड़वी दवा को पान कर लेना ही उचित होगा| उसने मन ही मन कहा, मैं मानता हूँ, कि दुनिया में सिर्फ मेरी माँ नहीं मरी है, औरों की भी मरी हैं| मगर ऊपरवाले ने सहने की शक्ति सबों को तो एक जैसी नहीं दी| कोई थोड़े से टूट जाते हैं, कोई टूटकर भी खड़े रहते हैं| सहने और न सहने की जड़ें आदमी के ह्रदय के भीतर होती है, जिसे खोदकर काटा नहीं जा सकता| 

             उसे अपने बीते बचपन की एक-एक घटना याद आने लगी| जब माँ जीवित थीं, तब मेरा यह जीवन कितना मनोहर था| उन दिनों लगता था; यह संसार मानो प्रेम, प्रीति और त्याग की खान है| क्या वह कोई अन्य संसार था? इन्हीं विचारों में मनोहरदास की आँखें झपक गईं और चलचित्र की भाँति सारी घटनायें आँखों के सामने नाचने लगीं| उसने देखा, ‘किसी बात पर पिताजी डाँट रहे हैं, मैं रो रहा हूँ; मुझे रोता देख, मेरी माँ रो रही है| मुझे चुप कराने के लिए, माँ ने दिवाली की बची लड्डू लाकर मुझे दी, तब पिताजी, माँ से बोले, क्या हो रहा है? माँ ने कहा, यहाँ डाँटने वाले को लड्डू नहीं मिलती है; लड्डू डाँट खाने वाले को मिलता है|’ पिताजी बोले, ‘तुम अपने बेटे से कहो, एक बार मुझे डाँट दे| सुनकर मैं हँसने लगा, माँ और पिताजी भी हँसने लगे|’ इन शुभ वर्षों को गुजरे हुए पाँच साल हो गए| कितने ही प्राणियों को संसार की सुख-सामग्रियाँ इस परिमाण में मिलती हैं, कि उनके लिए, दिन सदा होली और रात्रि दिवाली रहती है? कितने लोग तो ऐसे भी हैं, जिनके आनंद के दिन कुछ पल या कुछ घंटे, या कुछ दिनों के लिए आती हैं; फिर बिजली की भाँति चमककर सदा के लिए लुप्त हो जाती हैं|

               इतने में उसकी पत्नी सुधा उसके पास आकर खड़ी हो गई| मनोहरदास की निगाह उस पर पड़ी| ऐसा जान पड़ा, मानो उसके शरीर में फिर से रक्त-संचार हुआ| उसने पत्नी से कहा, ‘सुधा! काश मैं मुसलमान या ईसाई होता, तब मैं अपनी आह को फूलों से सनी मिटटी में मिलाकर, माँ के संग उसी कब्र में पड़ा रहता, जिस कब्र में माँ को दफनाता; तब मेरी माँ मुझसे दूर नहीं होती| मैं उसके बगैर ज़िंदा नहीं रह सकता; वह मुझसे जुदा होकर चैन नहीं पाती होगी|’ 

सुधा, पति की बात पर बोझिल हो बोली, ‘मगर मनोहर! एक बात मेरी मानो, किसी इंसान को, आत्मा और अल्लाह के बीच में नहीं आना चाहिए| तभी आत्मा शांति से रह सकती है और यही माँ के लिए तुमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी|’

 

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