समय की कदर, अपनी कदर
ईश्वर के दंड और दया से बेपरवाह रामबदन, अपने भविष्य चिंता का पाठ नहीं पढ़ा था| वह अपने जीवन का, अधिकांश समय, खाने-खिलाने, और मौज-मस्ती में व्यतीत करता था| उसके पिता धनिक लाल पुराने रईश थे| मुंबई के जुहू में उनका विशाल आवास, आकाश को छूता नजर आता था| पिता धनिक लाल के गुजरने के बाद रामबदन, मनमाना बन गया| नित ब्रहम-भोज, साधुओं, गरीबों, बेसहारों के भंडारे का इंतजाम, उसे अपनी बंशगत संपत्ति बेचने के लिए बाध्य कर दिया| वह चाहता, तो पिता की तरह धन से धन की वृद्धि कर, पहले से अधिक धनवान बन सकता था | मगर उसे नये मार्ग पर चलना पसंद नहीं था|
एक दिन अपनी दाढ़ी काटते बख्त, उसने देखा---- सामने रखे आईने पर, शरदकाल की कोमल किरण, उस पर गिर-गिरकर ऐसे छटपटा रही है, मानो, किसी ने उसकी हत्या कर दी हो| वह बचने के लिए आश्रय माँग रही है, मगर आईने की फिसलन, उसे ठहरने नहीं दे रही उसने मन ही मन कहा---- इतनी निठुरता ठीक नहीं, इस पाषाण-हृदय को दया छूती क्यों नहीं? मैं तो, इस बेवकूफ आईने से यही कहूँगा---अभिलाषा पूरी होने की आशा हो या न हो,अपनी प्रेमिका से मिलने का आनंद तो उठा लेते, भावों की तृप्ति भी हो जाती, और मन को सुखद और रसमय कार्य भी मिल जाता| मगर इस आईने को कौन बताये, कि भाव-संसार का अश्रमण अतीव सुखमय होता है| तुम चाहते तो सुखद भावों का आनंद ले सकते थे| यह सब सोचते-सोचते रामबदन की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन होने लगा| उसे ज्ञात हुआ कि मैं कौन हूँ? क्या मैंने अपना कर्त्तव्य निभाया? मैंने जो उसके साथ व्यवहार किया, क्या यही धर्मनीति है? जब वह अपना जीवन मेरे लिए, धूल में मिल्रा देने को तत्पर थी, तब मैं उसके बाल-हृदय के व्यवहार को क्षमा तक नहीं कर सका, यह विचार रामबदन के हृदय में काँटे की भाँति खटकने लगा| सोचने लगा---- न्याय और शील में परस्पर इतना विरोध क्यों? क्यों मैंने अपने आत्मगौरव के दुर्ग पर इतने कड़े पहरे बिठा रखे थे, कि वहाँ लज्जा की पूर्ण प्रतिमा का प्रवेश भी मुश्किल था| वह दुर्ग-द्वार पर खड़ी, प्रेम की अग्नि-चिता पर लेटी, व्यथित मुझे पुकारती रही, और मैं तन्द्रा के कल्पित स्वर्ग में, त्याग और अनुराग के स्वर्ग -सिंघासन पर बैठा एक दार्शनिक की भाँति उसकी चंचलता की आलोचना करता रहा |
माना कि पूर्वजों का दिया धन-दौलत ने मुझे अपने कुंवारेपन
का एहसास नहीं होने दिया, न ही हिन्दू-पवित्रता के कर्त्तत्य और आदर्श का कोई
नियम स्थिर होने दिया| मैंने पुरुष धर्म की किताबें भी पढ़ी थीं, लेकिन उनका
कोई चिरस्थाई प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ा| कदाचित मैं उन सब बातों को भूल चुका था, मगर आज, शरद ऋतु की पहली किरण के सौजन्य से बीते दिनों की याद फिर से ताज़ी हो गई| दुःख होता है, सोचकर कि जिस प्रताप के लिए वह अपना अस्तित्व धूल में मिला देने को तत्पर थी, वहीं मैं उसके बाल-व्यवहार को उसके हृदय की संकीर्णता मानकर अपना न सका|
जब से, सुबह की उस बाल-किरण को शीशे पर ठहर जाने के
लिए छटपटाते देखा है, मुझे अपने चित्त पर एक बोझ सा महसूस होता है| रामबदन के हृदय में, तूफ़ान उठ रहे थे| उसका बस चलता, तो बीते उन दिनों को लौटाकर, ऐसी सोच रखने वालों को सावधान कर बताता-देखो! ज्यों मैंने अपनी जवानी, मुहब्बत की बाजीगरी और प्रेम-प्रदर्शन में गुजारी है, उस तरह बेकैद, आजाद, बेवद कभी इस शाख पर, कभी उस शाख पर चहकनेवाली चिड़िया की तरह आगे किसी को अपनी उम्र गुजारने मत देना| माना कि संसार में पशुबल का प्रभुत्व है, किन्तु पशुबल को भी न्यायबल की शरण लेनी पड़ती है, वह तुम्हारे पास जरूर आयेगा, ज्यों मैं आया हूँ|
आज मैं अकेला हूँ, धन-दौलत साथ छोड़ दिये हैं, अपने-पराये
रूठ गए हैं| अब इन सब के विरोध की ज्वाला-सम धूप असहय होता जा रहा है| तभी रामबदन को भूत के कोख से एक आवाज सुनाई दी; मानो कह रही हो ---- रामबदन! यह जीवन संग्राम का युग है| यदि तुमको संसार में जीना है तो नवीण और पुरुषोचित सिद्धांतों के अनुकूल जीना होगा| जिसे अपने कुल-मर्यादा की परवाह नहीं, उससे उदारता की आशा व्यर्थ है| अरे! तुमने तो अपने कपटाभिनय के रंग से, उसे अपना अरमान तो क्या, मन भी रंगने नहीं दिया|
इसलिए, समय तुमको माफ़ नहीं करेगा| माफ़ी उस सौन्दर्य सरोवर से माँगो, जो
तुम्हारे विरक्ति-भाव के प्रचंड ताप से सूख गया|
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