संस्कृति और सम्प्रदाय
राजनीति और अर्थनीति के स्वार्थ कंदर्प से बनी
संस्कृति का मुखौटा पहने, भुजंग सी फन फैलाए
साम्प्रदायिकता की प्रतिमाएँ, जहाँ-तहाँ रहतीं खड़ी
उनके विष के घातक फुंकारों को पीकर मर्माहत हो
ह्रदय दाह में प्रतिफल जलता, जन-जन का शरीर
मृगतृष्णा के ये पूजक मनुज नियति के विधाता बन बैठे
बतलाकर कि यही है हमारे जीवन का प्रतिनिधि
जन समुद्र को अर्थशास्त्र के शीशे में तसवीर दिखाकर
यमन प्रेत, ये निर्मम जग जीवन के मानस के स्तर-स्तर पर
अनेकों भ्रांतियाँ पैदा करते, कहते गत युग का मानस
संस्कृति का मुखौटा पहने सभी सभ्य वेष में प्रणत तो हुआ
मगर रीढ़ पशु-मानस हि था, जो संस्कृति के संस्कारों का
व्यापक मनुष्य में ढाल न सका,मांसल समत्व भर न सका
इसलिए जन वांछित मानस के मोह, दंभ की रक्षा करने
जिससे मानवीय स्तर पर देनी दुःख से, अखिल मुक्त हो
जन-जनको अपने पैरों पर खड़े करने, जीवन का
स्वर्णिम रूपांतर करने, आभा की देही शोभा की प्रतिमा बनकर
साम्प्रदायिकता के मुखौटे में, हमारी संस्कृति ही है खड़ी
भूख-प्यास से पीड़ित भद्दी हो गई है, संस्कृति की आकृति
इसलिए हमारी संस्कृति और साम्प्रदायिकता
के मुखौटे में आती, असली रूप को छिपाए रखती
कभी-कभी तो संस्कृति को लोग धर्म से जोड़ देते हैं
जब कि धर्म और संस्कृति दोनों बिल्कुल अलग-अलग हैं
धर्म, आस्था और विशवास का प्रतीक है, तो संस्कृति शतरंग प्रकाश
जो हमारी इन्द्रियों के स्वर्णिम पट को खोलकर रूप गंध से
हमारी आत्मा को झंकृत कर, स्वर्णिम भूषण पहनाती है
हमारे उर्ध्व नभ के प्रकाश को आत्मसात कर हमें जन
भू पर लाकर खड़ी करती है, हमें हमीं से पहचान कराती है
इसलिए साम्प्रदायिकता को धर्म से क्या लेना
लोग क्यों जकड़े रहते हैं , इस कंकाल के
तिमिर जाल में आत्म-नग्न होकर, जब कि
साम्प्रदायिकता जीवन निर्माण का विनाश रूप है
संस्कृति हमारे मन की, हमारी जाती का मनोच्छ्वास है
जो हमारे प्राण को उल्लास रहित होने से बचाती है
ठूंठे मन की डाली को गंध गुंजरित, रस कुसुमित करती है
आज के युग में हमारी संस्कृति पेट-भरों, अमीरों
और साहूकारों का व्यसन है , आम जनता
के लिए तो प्राण रक्षा ही सबसे बड़ी चुनौती है
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