शक की बुनियाद पर भीत
रात के दश बज चुके थे | किशोर, लीला से मिलने आने का वादा कर, मिलने नहीं आये | प्रेमातुर लीला की आँखें क्रोध में रोते-रोते सूज आईं | दिल से मधुर स्मृतियों का लोप भी होने लगा है | लीला को ऐसा, ज्ञात होने लगा कि उसके साथ किशोर का प्रेममात्र दिखावा है , मेरे यौवन को लूटने का वहाना है | नहीं तो क्या, वादा भी कोई इस तरह तोड़ता है | जिस दिल में मेरे लिए इज्जत नहीं, प्यार नहीं, विशवास नहीं, उसके साथ मुझे अब एक पल भी रहना नहीं | वह मन ही मन भिनभिनाई, कही ---- जो रात-दिन प्रियतमा , प्रियतमा कह थकता नहीं था, उसके विचार इतने कुटिल होंगे, मैंने कभी कल्पना नहीं की थी |
अचानक आँगन में मटका फूटने की आवाज आई | लीला, छत से नीचे, आँगन में झांककर देखी, तो भौचक्का रह गई | देखी ---- किशोर , बदहवास, मुँह भार गिरा हुआ है, और डूबती आवाज में कह रहा है --- लीला, मुझे माफ़ कर देना | मैं मौत से नहीं डरता, मगर तुम्हारी भलमानसी से डरता हूँ | मैं जानता हूँ लीला, पुराना सौहार्द बड़ी जल्दी द्वेष का रूप ग्रहण कर लेता है | कोई कितनी भी कोशिश कर ले, उसकी बात-व्यवहार में सहृदयता, एक कृत्रिम वात्सल्य, एक गौरवयुक्त साधुता आ जाती है |
लीला को अपनी निठुरता और अश्रद्धा पर बहुत खेद हुआ | कुछ पल पहले जो आत्मरक्षा की अग्नि प्रदीप्त हुई थी , किशोर की दशा देख तत्काल बुझ गई | वे भावनाएँ सजीव हो गईं, जो आज से पहले मन, ललायित किया करती थीं | वे सुखद वार्ताएँ, वे मनोहर क्रीड़ाएँ, वे प्रीति की बातें , वे वियोग-कल्पनाएँ नेत्रों के सामने फिर से चमकने लगीं | क्रोध के बादल छंट गए और प्रेम का चाँद चमकने लगा | लीला प्रेमानुराक्त होकर किशोर का मस्तक अपनी गोद में रख ली | किशोर ने देखा , लीला के अश्रु-पल्लवित नेत्रों में प्यार का सागर हिलोरे मार रहा है | मुख-मंडल, प्रेम-सूर्य की किरणों सी विकसित हो, कह रही थी --- ‘किशोर, मैं कितनी कमजोर हूँ ,कितनी श्रद्धाहीन हूँ | मैंने तुम्हारे विशुद्ध और कोमल ह्रदय पर शक किया | तुम्हारी ज़रा सी देरी, मेरी आँखों पर कैसा पर्दा डाल दिया | मैं कैसे इतनी अंधी हो गई | मैं तुम्हारी प्रेम-कसौटी पर खड़ी न उतर सकी , मुझे माफ़ कर दो |
किशोर रुंधे कंठ से कहा--- तुम मुझसे क्षमा माँग रही हो , यह तो मेरे ऊपर अन्याय है | सच मानो लीला, यह मेरा दुर्भाग्य है, कि तुम जैसी वात्सल्य की मूर्ति, निर्दोष, निष्कलंक का मैं सम्मान न कर सका |
लीला प्रेमोनमत्त हो बोली ----भगवान के लिए, ऐसी बातें बोलकर मुझे लज्जित मत करो, मैं मिथ्याभ्रम में पड़कर तुम्हारे विरुद्ध न जाने कैसी-कैसी बातें सोचने लगी थी | पर अब तुम गुस्सा थूक दो, और मेरी क्षुद्रताओं और दुर्बलताओं को क्षमा कर दो |
किशोर ने रुंधे स्वर में कहा--- लीला, तुम नाहक ही खुद को परेशान कर रही हो | इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है , दोष तो स्थिति और माहौल का है | ऐसा सबों के साथ होता है, जब साधारण मन की स्थिति को जोड़कर मनुष्य कुछ दूसरी बात सोचने का प्रयास करता है , तब उसके त्रस्त मन को किसी भयावनी साया में ही शरण मिलती है | निश्चय ही तुमको भी मुझसे अलग होने का डर सताया होगा ,और उस चिंता-सागर से जब तुमने खुद को निकाला होगा , तब तुमको अपनी अप्रसन्नता पर भ्रम हुआ होगा | उस वख्त तुम अपनी उच्चाकांक्षा को पर्वत के पदस्थल तक ले गई होगी , लेकिन ऊपर न ले जा सकी | वहीँ हारकर बैठ गई , तब मुझ जैसे साहसी ,ईमानदार व्यक्तित्व पर भ्रमवश, निंदा करने के लिए तुम बाध्य हुई होगी |
लीला, किशोर की बातों को सुनकर कुछ देर तक चुप रही, फिर कंपित स्वर में कही ---- तुम्हारा कहना बिलकुल सही है | किशोर, घंटों इंतजार के बाद भी जब तुम नहीं मिले , तब मेरे मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थी | मन की दुर्बलता ने मुझे दिशाहीन बना दिया था, दम फूलने लगा था | ऊपर की साँस ऊपर ही रह जाती थी ,भीषण प्राण वेदना थी ; लगता था, साँसों का अवरोध, तुमसे मिलने के पहले ही मेरे प्राण का अंत कर देगा ,तभी आँगन में मटका फूटने की आवाज आई | मैं दौड़कर ,जब देखने गई , देखी-----तुम आँगन की एक तरफ औंधे मुँह गिरे हुए हो और दूसरी तरफ, उसी आँगन में, चाँदनी कुहरे की चादर ओढ़े, जमीन पर, तुमको गिरा देख , सिसक-सिसक कर रो रही है | तुलसी का पौधा ठीक तुम्हारे बगल में सिर झुकाए आशा और भय से विकल हो- होकर मानो तुम्हारे वक्ष पर हाथ रख, तुमको उठाने की कोशिश कर रहा है | सहसा तुमने आँखें खोलीं , और इधर-उधर खोई हुई आँखों से, कुछ इस तरह देखा, मानो देरी से आने हेतु संवेदना से भरा तुम्हारा ह्रुदयाग्रह क्षमा माँग रहा हो | यह सब देखकर मेरा ह्रदय विदीर्ण हो गया | पर क्षण भर बाद ही दिल ने कहा ----- जिस दंड का हेतु ही तुमको नहीं मालूम , उस दंड का मूल्य ही क्या ? यह तो विधाता की जबरदस्ती की वह लाठी है, जिससे आघात करने के लिए , किसी कारण की जरूरत नहीं पड़ती |
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