शरणार्थी
पौष का महीना था | सलीम अन्यमनस्क मस्जिद के गुम्बद को निहारता , उसकी आँखों में उसके नैराश्य जीवन की क्रोधाग्नि , किसी सैलाब की तरह डुबो देने ,उसकी ओर बढ़ता चला आ रहा था | जब से उसका ह्रदय सजीव प्रेम से आलुप्त हुआ, तब से उसके एकांत जीवन बिताने की सामग्री में इस तरह के जड़ सौन्दर्य बोध भी एक स्थान रखने लगा | उसकी आँखों से नींद दूर जा चुकी थी, घर काटने दौड़ता था | आँखों में किसी कवि की कल्पना सी कोई स्वर्गीय आकृति नहीं , बल्कि उसका बेटा जुम्मन रहता था , जिसे उसने अपने लहू से सृजा और पाला था ; जिसके सामने सुख-शांति का लालच सब तुच्छ था | जिस पर उसने तीनों काल लुटा रखा था , और जिसे पाकर वह, पत्नी फातिमा से कहता था --- फातिमा, जानती हो, ऊपरवाले के पास जितना भी धन था , सब के सब उसने हमारी झोली में डाल दिया |
फातिमा, आग्रह स्वर में पूछती थी---- वो कैसे ?
सलीम, पिता-गर्व से बोल पड़ता था --- पुत्र के रूप में , हमारी गोद में जुम्मन को सौंपकर |
पति की बात सुनकर फातिमा का मुख ,उसके त्याग के हवन-कुण्ड की अग्नि के प्रकाश से दमक उठता था ; उसका आँचल ख़ुशी के आँसू से भींग जाता था और प्राण पक्षी जुम्मन को लेकर आसमान को छूने उड़ने लगता था |
एक दिन सलीम अपनी मूँछें खड़ी कर ,पत्नी फातिमा से कहा ---- फातिमा ! हम चाहे, जितना भी गरीब हों, मगर इस बात का ख्याल रखना, जुम्मन की खुराक में कभी कमी न आये | कारण जानती हो , जिस वृक्ष की जड़ें गहरी होती हैं, उसे बार-बार सींचना नहीं पड़ता है | वह तो जमीन से आद्रता खींचकर हरा-भरा रहता है , और हरा-भरा वृक्ष ही अस्थिर प्रकाश में बागीचे के अथाह अंधकार को अपने सिरों पर संभाले रखता है , इस विचार में कि, हमारे जीवन के अथाह अंधेरे को हमारा पुत्र संभालेगा | दोनों पति-पत्नी ने मिलकर ,मजदूरी करने का व्रत उठा लिया | कभी घास काटकर , उसे बाजार में बेचकर , कभी जंगल से लकड़ी लाकर , कभी मुखिया के दरवाजे पर रात-रात भर लकड़ी के साथ अपना कलेजा फाड़ते रहता था और इससे मिले पैसों से जुम्मन की पढ़ाई-लिखाई का खर्च पूरा करता था | जुम्मन भी पढ़ने-लिखने में कुशाग्र बुद्धि का था | उसने दशमी पास कर ,शहर जाकर ,कॉलेज की पढ़ाई पूरी की ; बाद उसे एक अच्छी नौकरी भी मिल गई |
पुत्र को नौकरी मिल गई, जानकर दोनों पति-पत्नी ने कहा--- आज हमारा यग्य पूरा हो गया , मेरा बेटा अपने पैर पर खड़ा हो गया ; लेकिन इस ख़ुशी को दो साल भी नहीं भोगा था , कि साधुता और सज्जनता की मूरत सलीम पर ,भाग्य ने बहुत बड़ा कुठाराघात कर दिया | फातिमा, गठिये के दर्द से परेशान रहने लगी , वह चल नहीं पाती थी; सलीम के लिए गाँव में अकेला रहकर पत्नी को , शहर इलाज के लिए ले जाना मुश्किल था | सो उसने जुम्मन को फोन कर बताया --- बेटा ! तुम्हारी माँ उठ-बैठ नहीं सकती है , गठिये का दर्द उसे नि:पंगु बना दिया है | गाँव में कोई डाक्टर -वैद्य भी नहीं है, जो उसे ले जाकर दिखाऊँ | शहर ले जाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है, इसलिए तुम आकर हमें अपने पास ले चलो | वहीँ रहकर किसी डाक्टर से इलाज करवा देना |
जुम्मन ने कहा __- ठीक है, मैं जल्द आने की कोशिश करता हूँ |
राह देखते-देखते महीना बीत गया, लेकिन जुम्मन आने की बात तो दूर , एक फोन कर हाल-समाचार भी नहीं पूछा | पुत्र के इस रवैये से सलीम बहुत उदास रहने लगा | उसकी आँखें हमेशा आकाश की ओर लगी रहती थी | सोचता था , सलीम हमें लेने नहीं आया, कोई बात नहीं ,एक फोन ही कर लेता | मामूली शिष्टाचार भी नहीं निभाया , सारी दुनिया हमें जलील किया, कम से कम पिता जानकर , वह तो छोड़ देता |
रात हो चुकी थी, लैम्प के क्षीण प्रकाश में फातिमा ने देखा; उसका पति सलीम, उसकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से निहार रहा है | फातिमा समझ गई ---सलीम का ह्रदय घोर तमिस्रा की गंभीरता की कल्पना कर अधीर हो जा रहा है | उसने कहा ---- सलीम, मैं जानती हूँ , इस अपमान के सामने, जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ हैं, इस समय तुम्हारी दशा उस बालक सी है, जो फोड़े पर नश्तर की क्षणिक पीड़ा न सहकर , उसके फूटने, नासूर पड़ने, वर्षों खाट पर पड़े रहने और कदाचित प्राणांत हो जाने के भय को भी भूल जाता है |
सलीम अपनी मनोव्यथा छिपाने के लिए सर झुका लिया, बोला ---जिसका पूरा जीवन इस चिंता में कटा हो कि कैसे अपने संतान का भविष्य सुखी बनाए, वह संतान बड़ा होकर अपने ही माँ -बाप के दुःख का कारण बने , तो कलेजा तो फटता है न ?
फातिमा आद्र हो बोली --- हमारी सभ्यता का आदर्श यहाँ तक गिर चुका है , मालूम नहीं था | याद कर दुःख होता है , जिस लडके ने कभी जबान नहीं खोली, हमेशा गुलामों की तरह हाथ बाँधे हाजिर रहा,
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY