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Dr. Srimati Tara Singh
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शिक्षा और संस्कार

 

शिक्षा और संस्कार

शिक्षा का मतलब, सिखाना और उसका विकास होता है, जो जीवन से जुड़ी हर जरूरतों को पूरी कर सकता है । अगर शिक्षा बच्चों की मातृभाषा के माध्यम से दी जाय, तो वे उन्हें बड़ी सरलता से अपना लेते हैं, क्योंकि छोटी आयु में जो भाषा दिल और दिमाग के जितने निकट होगी, उतनी ही सुचारू बालकों की शिक्षा होगी । बच्चों के जीवन से उनकी भाषा जितनी सम्बंधित होती है, उतनी अन्य भाषा नहीं होती ।
शिक्षा का मर्यादित और सांस्कारिक होना, जिससे बच्चे बड़े होकर देश और समाज के प्रति अपने दायित्व को समझें, अत्यन्त जरूरी है, जिससे कि उनके मन में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना हो, न कि ईर्ष्या की , उनमें आत्मग्यान जागृत हो, उनका आत्मविश्वास बढ़े, भेदभाव, अलगाव की भावना न घर सके, आपस में मिल-बैठकर रहना सीखें । शिक्षा के अंधेरे कुएँ में डूबा आदमी, खुद-ब-खुद के परिवार तक ही सीमित रह जाता है, परिणाम देश व्यक्ति-व्यक्ति में बंट जा रहा है ; परिवार टूट जा रहे हैं । बच्चे कच्ची मिट्टी के मानिंदे हैं, हमें सिर्फ़ उनके साथ कुशल कुंभार की भूमिका निभाने की जरूरत है । बच्चे सिखाने से अधिक, अपने माँ-बाप, रिश्तेदारों से देखकर सीखते हैं । यदि हमें अपने बच्चों से सु-आचरण की उम्मीद है, तो इसके लिए हमें उनमें सु-संस्कार भरना होगा, और यह काम एक संस्कारी माँ-बाप ही कर सकता है । कौन व्यक्ति कैसा है, अच्छा या बुरा; उसके रंग-रूप या पहिनावे से नहीं पहचाना जा सकता, बल्कि उसके साथ बोलचाल से ,और उसके तौर –तरीकों से उसके संस्कारों का पता चलता है । व्यक्ति अगर बुरा है, तो मात्र उसके बड़े कुल में जन्म ले लेने से भलों में नहीं गिना जा सकता । सही नजरिये के लोग चमड़ी के रंग या फ़ैशन पर ध्यान नहीं देते, वे तो सदा गुण को महत्व देते हैं । संस्कारी होने से जीवन संतुलित हो, सुखी होता है, इसलिए संस्कार को जीवन की नींव कहा गया है । जो स्वयं असंस्कारी है , वह क्या खाक संस्कार भरेगा -- ज्यों प्रज्वलित दीपक ही बुझे दीपक को जला सकता है ; बुझा हुआ दीपक, जो खुद नहीं जल सका, वो क्या जलायेगा ?
यूँ तो जीने का, कीड़े-मकोड़े भी जी लेते हैं, पशु-पक्षी भी अपना पेट भर लेते हैं , लेकिन ईश्वर ने एक मात्र मनुष्य को ही इस पृथ्वी पर ऐसा जीव बनाया , जो जीवन निर्वाह के साथ-साथ जीवन निर्माण भी कर सकने की पात्रता रखता है । पके हाँडी पर कच्ची मिट्टी की लेप नहीं चढ़्ती, पके बांस को मोड़ा नहीं जा सकता, कंबल काला हो तो उस पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता; ठीक उसी तरह एक निश्चित उम्र गुजर जाने के बाद हम बच्चों में संस्कार नहीं भर सकते । हम सचमुच अगर चाहते हैं, कि हमारी संतान बड़े होकर एक अच्छा संस्कारी इंसान बने, तो उनमें संस्कार जनमते ही डालना शुरू कर देना चाहिये ; जैसे अगर कोई बच्चे बेझिझक दूसरे बच्चे को मार बैठते हैं, या उनके हाथों से कुछ छीन लेते हैं, तब वहाँ पर हमें यह कहकर मना करना चाहिये---- “ बेटे ! यह आपकी दीदी है, या आपकी दोस्त है; दोस्त से लड़ते नहीं । दूसरों की चीज बिना दिये छीनते नहीं, वरना लोग आपको बेवकूफ़ और बुरा बच्चा कहेंगे ।
बच्चे देखकर बातें अधिक सीखते हैं, हम चाहते हैं कि हमारी संतान ,हमारे बुढ़ापे का सहारा बने, तो पहले हमें अपना कर्तव्य समझना होगा । अपने बूढ़े माँ-बाप या समाज के असहाय बुजुर्ग व पशुओं की सेवा कर उन्हें कर्तव्यपरायणता का सबूत देना होगा । वो जब देखेंगे कि उनके माता-पिता, किस तरह के उदार-दिल इंसान हैं, तभी वे वैसा उदार दिल इंसान बनने की कोशिश करेंगे । कारण यह संसार प्रतिध्वनि मात्र है , यहाँ तो वही मिलता है जो हम लुटाते हैं । दुख बाँटेंगे , दुख मिलेगा ; खुशी बाँटेंगे, खुशी मिलेगी । अनंत संस्कारों का पुतला, आदमी के कुछ संस्कार अपने होते हैं, व्यक्ति जो कुछ कहता है या करता है, सब उसके भीतर इस जन्म के और कुछ पूर्व जन्म के संस्कार हैं जो खून संग मिलकर बहते रहते हैं; इनका आदमी को सांस्कारिक बनाने में बहुत बड़ी भूमिका होती है ।

भगवान महावीर में जन्म-जन्मांतर से सन्यासी का संस्कार था : यही कारण है कि उनके माता –पिता के लाख मना करने के बाद भी, वे सन्यास लेकर अरिहन्त हुए । संस्कार इस जन्म के हों या उस जन्म के, व्यक्त हुए बिना नहीं रहते । व्यक्ति-जीवन में जन्म से मत्यु पर्यन्त सोलह संस्कारों का विशेष वर्णन है ।
आज पाश्चात्य संस्कृति में ढ़लने की होड़ में हमारे नवयुवक स्वयं को शक्तिशाली बनाने, या दीखने को ही जीवन की सच्चाई मान बैठे हैं । यही कारण है, परिवार बिखर जा रहा है, भोगवाद पनप रहा है, अर्थ-संचय का अर्थ नैतिकता न होकर,अनैतिकता का आचरण हो गया है । जहाँ पहले व्यक्तित्व विकास के साथ थे वहाँ अब शारीरिक प्रदर्शन मात्र रह गया है । इसे रोकने की जिम्मेदारी परिवार की होती है, यदि परिवार ही इस कदर की शालीनता की निशानी वेशभूषा को संरक्षण देगी,जो कि विद्रोह की निशानी बनती जा रही है तो वह दिन दूर नहीं, जब आदमी और पशु , दोनों के बीच की दूरी मिट जायगी ।
संस्कार आदमी के व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाती है, उसे समाज में आदर और सम्मान प्राप्त कराता है, क्योंकि आदमी के जीवन-शैली पर संस्कार बहुत बड़ी मध्यस्थता करता है । मगर दुख की बात है, आज के आधुनिक युग में जीवन-शैली की जगह शिक्षा ले रही है, जब कि शिक्षा और संस्कार दोनों अलग-अलग हैं । एक गरीब अनपढ़ आदमी भी संस्कारी हो सकता है, और एक शिक्षित आदमी दुराचारी, मगर संस्कार और संस्कृति का आपस में बेजोड़ सम्बंध है । जो संस्कार के बिना संस्कृति को जिंदा रखना चाहता है, तो यह पानी बिना बाग को सींचने की बात है । संस्कार जीवन की नींव है, ज्यों नींव बिना इमारत खड़ी नहीं रह सकती, त्यों संस्कार बिना संस्कृति नहीं टिक सकती । जीवन निर्माण के लिए भाग्य, पुरुषार्थ , संस्कार और संस्कृति , ये चार आधारभूत स्तम्भ हैं, जिनमें संस्कार का सबसे बड़ा महत्व है ।


संस्कार आदमी को माँ की गोद में ही माता-पिता , दोनों से मिलने लगते हैं; अगर पिता संस्कारी है, तो उनके संतान बहुत हद तक संस्कारी होंगे । इसलिए माता-पिता का संस्कारी होना बहुत जरूरी है, क्योंकि सज्जन ही सज्जनता दे सकता है । बुरी संगति का प्रभाव जीवन पर , आग और लोहे की तरह है, जिसमें लोहा पीटा जाता है । पानी ने जब भी आग से संगति की, वह अपने पद से च्युत हो गया; अच्छी संगति से भव-भवांतर दोनों सुधर जाते हैं ।
प्राचीन भारतीयों का विश्वास था, कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शुद्र होता है; उसे आर्य बनने से पूर्व शुद्धि या संस्कार की आवश्यकता पड़ती है । इसी उद्देश्य से उपनयन--संस्कार किया जाता है, अर्थात संस्कारों द्वारा मनुष्य अपना नैतिक और व्यक्तित्व दोनों का विकास कर सकता है । संस्कारी मनुष्य संयमी होता है, तथा अपने किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन के भीतर ही प्रयास करता है । जात- धर्म , नामकरण, अन्नप्राशन, कर्ण वेधन, मुंडन, उपनयन, विवाह, अंत्येष्टि ; ये सभी जीवन में सम्पन्न होने वाले प्रमुख संस्कार हैं । इन्हें करते समय मनुष्य को इस बात की अनुभूति होती है कि अब उसके ऊपर कुछ नई जिम्मेदारियाँ आ रही हैं , जिन्हें निभाना है । समय काल के अनुसार इन संस्कारों का रूप बदल सकता है, मगर जीवन को सफ़ल बनाने की दिशा में इनका महत्व कभी कम नहीं होगा ।



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