Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सुचरिता

 

सुचरिता



             मंगल सिंह की सारी संपत्ति, सीमा के रूप-वैभव के आगे तुच्छ था ; प्रत्यक्ष ही नहीं, परोक्ष रूप से वह कई बार मंगल सिंह को हताश कर चुकी थी | पता नहीं, फिर भी वह अभागा निराश होकर भी, क्यों सीमा पर अपना प्राण छिडकता था ? नाटा कद, रूपहीन , दुबला-पतला , मगर चेहरे पर अमीरी का गर्व लिए सीमा की ओर घंटों ताकते रहता , लेकिन सीमा क्षुब्ध नजरों से भी उसकी तरफ नहीं देखती | उसे क्या पता था, कि जिसे आज लात मारती हूँ, कल वही उसका जीवन अवलंब बनेगा | 

             एक दिन मंगल सिंह ने देखा, सीमा एक ठूँठे पेड़ से सटकर मर्माहत सी खड़ी है, और उसकी आँखों से रह-रहकर आँसू की बूँदें टपक जा रही थीं कि अचानक सीमा की आँखें मंगल सिंह को देखते ही  एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गईं , जिसमें संतोष, तृप्ति और उत्कंठा भरी हुई थी | उसने आवाज देकर कहा --- मंगल ! तुम मेरी एक मदद कर सकते हो ?

मंगल सिंह, आत्मसमर्पण के स्वर में बोला ------- आज्ञा तो करो, एक क्यों , हजारों मदद के लिए हाजिर हूँ |

सीमा ------- फिलहाल तो मुझे एक ही मदद चाहिए |

मंगल सिंह -------- कहो, क्या करना है ? 

सीमा ------ मुझे कुछ पैसे चाहिए , मेरे पिता बहुत बीमार हैं , उनके लिए दवाईयाँ खरीदनी है | पैसे माँगकर, सीमा ने मानो मंगल सिंह की धन शक्ति को जगा दिया | आज पहली बार सीमा ने उसकी आशाओं को दरवाजे तक लाकर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को, आत्मा और समर्पण के स्थान से गिराकर भौतिक धरातल तक पहुँचा दिया था ; जहाँ संदेह और भोग का राज्य है | उसने देखा---सीमा , यह कहते हुए उसके देवत्व की तरफ से अभी भी आँखें बंद किये हुए है | उसकी एक उत्कट भावना अभी तक जागृत नहीं हुई है, जिसके बिना विवाह का प्रस्ताव हास्यजनक है | इसलिए उसने अपनी भावना की रक्षा करते हुए, इसी भावना का क्षेत्र बढ़ाकर कहा ------ अभी मेरे पास दश हजार हैं, और लगे तो बेहिचक बताना | यह कहकर मंगल जाने लगे , तभी सीमा ने 







मंगल को जाने से रोकते हुए कहा ------- देवत्व ही आपकी दुर्दशा है , काश कि आप देवता कम, आदमी अधिक होते ! 

मंगल, कमर से दश हजार रूपये निकालते हुए बोले ----हर पत्थर मूर्त्तियाँके गढ़ने  के काम नहीं आता, उसे तो खरादने वाला परखता है , तब घर ले जाकर जैसा रूप उसे चाहिए , वैसा देता है | परखने में देरी तुमने की, तो इसमें मेरा क्या कसूर है ?

सीमा का ह्रदय मंगल सिंह के लिए पहली बार कुछ अधूरा सा, महसूस किया, और उस शुभ मुहूर्त्त के लिये विकल हो उठा | सोचने लगी, जब मंगल सिंह की अतुल संपत्ति अपने हाथों में आ जायेगी ; जब वह मेरे घर अस्थायी रूप से नहीं, स्थायी रूप से निवास करेंगे, वह नित कल्पित सुख के भोगने में मग्न रहने लगी | रात-रात जागती और आनंद के स्वप्न देखा करती , यहाँ तक कि आशा और भय की अवस्था उसके लिये असह्य हो गई | इस दुविधा में सावन बीत गया, भादो आ गया | आखिर एक दिन उसने अपनी शंका को मिटाने का निश्चय कर, मंगल सिंह के घर जा पहुँची, और कही ----- मुझे अपने घर ले आने में तुमने बड़ी देर कर दी, इसलिए मैं खुद चली आई | क्या अतिथि का सत्कार नहीं करोगे ? 

मंगल सिंह, निष्कपट प्रेम का यह परिचय पाकर प्रेमोन्माद से भर उठा | सोचने लगा, वह कामिनी, जिस पर बड़े-बड़े अमीर फ़िदा हैं, वह मेरे लिए इतना बड़ा त्याग करने के लिए तैयार है | मैं कितना भाग्यवान हूँ ? इसके पहले जब भी मिली, बंधन में एक और गाँठ लगा देती थी, ऐसे में, मैं क्या, किसी भी संयमी पुरुष का आसन डोल जाता | खैर, चलो देर ही सही, गाँठ ढ़ीली पड़कर खुली तो !

              मंगल सिंह कुछ देर सोचा, और तत्क्षण आवेश में आकर अपनी उँगली चिर कर, सीमा के माँग को लहू से भर दिया | सीमा, मंगल सिंह का यह  अनुराग और आत्म-समर्पण देखकर करुणार्द हो बोली----- आज मैं तुममें रहकर जिन्दी रहूँगी, मेरा अपना कोई वजूद नहीं होगा |

              मंगल सिंह के एकांत जीवन में, सीमा ही प्रेम, स्नेह और 

संतावना की वस्तु थी | अपना सुख-दुःख विजय-पराजय, अपने मनसूबे , इरादे उसी से कहा करता था | एक दिन मंगल, सीमा से कहा ------ सीमा, दिन के एकांतवास को तोड़ने के लिए, हमें एक खिलौना चाहिए , वो भी बेटी के रूप में | मंगल की बात सुनकर सीमा पहले तो शर्मा गई , फिर कही ------- बस थोड़े दिन और इंतजार करो | 

कुछ दिनों बाद सीमा ने एक बच्ची को जन्म दिया , नाम रखा, बंदनी | बंदनी कुछ ही दिनों में अपनी प्यारी सूरत के कारण, आस-पड़ोस, दोस्त-दुश्मन , सबों 

की दुआ की हकदार बन गई | सभी बस यही कहते थे, ईश्वर इसे सलामत रखना |

       एक दिन मंगल सिंह, अपनी पत्नी और बंदनी के साथ नक्षत्र माला सुशोभित गगन के नीचे आँगन में सो रहे थे | तभी आकाश में घनघोर घटा , काल के विशृंखल आंधी-तूफ़ान के साथ, मंगल सिंह के लिए मौत का भी सामान लेती आई |

ऊपर आकाश से, आकाशीय बिजली गिरी , और तत्क्षण मंगल सिंह काल के ग्रास हो गए | यह देखकर सुचरिता संज्ञाहीन हो गई, पति के अधजले लाश को गोद में लिए, उसके रक्त से अपने वस्त्रों को भिंगोती, आकाश की ओर ताकती हुई मानो पूछ रही हो ------ न्याय और सत्य के निर्भीक समर्थक समझे जाने वाले , क्या यही तुम्हारा न्याय है ? क्या आज तुम्हारी भी आत्मा , सिद्धि- लालसा के नीचे दबकर मेरे पति की तरह निर्जीव हो गई है ? हमारी अनीति है, जो हम, तुम जैसे अन्यायी को भगवान मान बैठे हैं | तुम्हारी इस अकर्मण्यता से, आज के बाद कितने ही न्यायशील और आत्माभिमानी भक्त का यकीन तुम पर से उठ जाएगा !

            मंगल सिंह के जाने के बाद, सीमा में एक विचित्र शिथिलता सी छा गई | दो दिन पहले तक उसके ह्रदय में जो आशालता सुखद समीकरण से लहरा रही थी, उस स्थान पर अब केवल झुलसी हुई पत्तियों का ढेर था | कुछ दिनों बाद, ही पति के धन का आश्रय कम होने लगा, तब सीमा को अपनी बच्ची के भविष्य की चिंता, डराने लगी | मगर पैसे कमाने के सभी रास्ते से अज्ञान सीमा, बचपन में थोड़ा-बहुत नाचना, गाना सीखी थी | सोची , क्यों न गाँव के मेले में अपने इस हुनर को दिखाकर जीविका चलाने का प्रयास करूँ | मगर गाँव 

की नारी के लिए, यह उतना आसान नहीं था | 

            सीमा को पता था, कि इसके लिए मुझे मुखिया से मिले रहना होगा , तभी समाज की आलोचना को झेल सकूँगी | उसने मुखिया से जाकर अपनी आर्थिक दुर्दशा को बताया, और कहा ---- रंगमंच मेरी तपोभूमि होगी , मैं जानती हूँ , धन के साथ आक्षेप भी है | मैं उसे सहने के लिए तैयार हूँ , अगर आपकी अनुमति मिल जाय !

          मुखिया से अनुमति लेकर सीमा, सप्ताह के दो दिन मेले के रंगमंच पर जाने लगी | बेटी बंदना को भी साथ ले जाती और पास ही कुछ खिलौने के साथ बिठा देती थी | एक दिन मुखिया का दोस्त, भरत दिलजोई करते हुए मुखिया से कहा------ क्या मित्र, मेले में जाने का विचार है ?

मुखिया, चकित होकर पूछा---- क्यों, आज क्या है ? 

भरत, ठिठोली करते हुए कहा------ आज उस विधवा का डांस है | देखोगे, अच्छा नाचती है |

मुखिया, आहत गर्व से कहा ------- मित्र ! एक तरफ तो तुम नारी उत्थान की डींगें मारते चलते हो, दूसरी तरफ उसी नारी के प्रति तुम्हारी गंदी नजरिया !

भरत, ताली बजाकर कहा------ क्या यह नारी उत्थान है , अरे यह पतन है पतन | एक तो विधवा, उस पर एक बच्चे की माँ, जानते हो ------ उस बच्ची को भी पास ही रंगमंच पर बिठाकर रखती है | आगे चलकर, अपने जैसा बेचारी उस बच्ची को भी बनने सिखा रही है | 

मुखिया, भरत को बीच में ही आगे बोलने से रोकते हुए, भरे कंठ से मर्माहत भाव से बोले ------ मित्र ! तुम्हारी तरह मैं भी सीमा को समझने में ऐसी भयंकर भूल कर देता, जो उसके दयनीय दशा से मैं परिचित नहीं होता | मित्र ! जिसे तुम बहाया कहते हो, वह दुःख सागर में डूबी हुई एक मजबूर, असहाय महिला है | काँटा उसके कंठ में चुभा हुआ है , फिर भी गला फाड़ कर गाती है , जिससे कि दूर तक उसकी आवाज जाय, और बदले में दो पैसे अधिक मिले, जिससे अपनी और अपनी बच्ची की रोटी की व्यवस्था कर सके | फिर भी तुम कहते हो तो चलो, आज मैं तुम्हारे संग जरूर जाऊँगा |

              दोनों निष्क्रिय भाव से विचारों में डूबे हुए मेले में पहुँचे | रंगमंच सजा, पर्दा उठा---- देखा, विधवा युवती के हाव-भाव, हास-विलास सबों को मुग्ध  

कर लिए | पर उसे पहली बार ज्ञात हुआ, कि यहाँ न हाव है न भाव , न हास-विलास है , न वह जादू भरी चितवन, इसके नृत्य में दर्द ही दर्द है | जब-जब उसकी नन्हीं बिटिया गोद में आने के लिए हलसती है , तब-तब उस माँ की ममता बेसब्र हो जाती है, और उसकी ओर बाँहें फैला देती है, जब वह ताली बजाती है, विधवा युवती भी ताली बजाती है, जिससे कि उसका बच्चा खुश रहे, रोये नहीं |

    अपनी बच्ची के प्रति विधवा का आत्मसमर्पण देखकर भरत विचलित हो गए, और उठकर जाने लगे | तभी पीछे मुड़कर उसे रोकते हुए, मुखिया ने निर्मम स्वर में पूछा------- मित्र ! चले जा रहे हो ? अरे अभी इस विधवा के कष्ट का प्याला भरा कहाँ ?

मुखिया के ये शब्द ,भरत के ह्रदय पर तपते बालू की तरह पड़े, और वे रो पड़े, उस अश्रुजल से उनके ह्रदय में पल रहे विधवा के प्रति जितनी भी अग्निशालाएं थीं, सभी बुझ गईं, और अपनी आंतरिक वेदना से विकल होकर बोले ------- मित्र ! जिस समाज में मुझ जैसा दुष्ट, नीच , अधर्मी और व्यभिचारी रहेगा, उस समाज में नारी का उत्थान नहीं हो सकता | जिसे मैं निर्लज्ज , कलंकिनी, कलमुंही, दुश्चरिता कहते नहीं थकता था, आज रंगमंच पर, चरित्र के दूसरे रूप के निकलने पर मैं शर्मिन्दा हूँ | मैं माफ़ी पाने लायक तो नहीं , फिर भी उस साध्वी से माफ़ी माँगना चाहता हूँ | 


भरत के अपने ही क्षोभयुक्त विचारों ने उसे इतना मसोसा , कि उसकी आँखें भर आईं | वे वहीँ मुखिया के बगल में कुर्सी पर बैठ गए , और दीवार की तरफ मुँह फेरकर रोने लगे |

भरत की आर्द्र आँखें देखकर , मुखिया ने कहा --- मित्र ! पराजय का आध्यात्म महत्त्व, विजय से कहीं अधिक होता है ; इसलिए अपने आँसू पोछ लो |


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