Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सुखनी

 

  जलाहार जिंदगी काट रही  रमलखियाग्रामसेविका की दयाकृपा से जब अपनी चौथी संतान को जन्म देने सरकारी अस्पताल पहुँचीतो वहाँ के गद्देदार  बिस्तर , भरपेट दाल-चावलसब्जी को पाकर अपनी फ़ूटी तकदीर को कोसना छोड़ , फ़ूलों सी सहलाने लगी  मन ही मन सोचने लगी,’ एक अमीर की बहूबेटियों में और मुझमें आज क्या फ़र्क है ; कुछ भी तो नहीं  वे लोग क्या इससे अच्छी जिंदगीगुजर-बसर करते हैं नहीं ,इससे बढ़कर और सुख क्या हो सकता है ? सुबह होते-होते चाय –पानीदश बजते-बजते डाक्टरों की टीम चेक-अप के लिए हाजिर ; जहाँ गाँव के गोनू की ( होमियोपैथिक दवा ) दो रुपये की दवा नसीब नहीं थी  सचमुच मेरी यह चौथी संतान मेरे लिए आगे भी सुखकर होगी  जन्म से पहले जो संतान माँ को इतना सुख दे सकती हैजन्म के बाद वह कितनी भाग्यशाली होगी ? ’ सोचसोचकर इतनी खुश हो रही थी मानो तीनों लोक का सुख रमलखिया के कदमों के नीचे आ बिछ गया हो । हाफ़ी भी करती थी, तो बेहद लम्बी-चौड़ी अँगराई लेते हुए ;मानो आज के बाद कल आयेगा ही नहीं ।

         ठीक रात के बारह बजे , रमलखिया ने एक बेटी को जन्म दिया और जनमते ही उसका नाम सुखनी रख दिया । सुबह आस-पड़ोस के लोग जब रमलखिया से मिलने, हाल-चाल जानने अस्पताल आये, तो बातों ही बातों में रमलखिया से पूछा,’ ललुआ, मलुआ और सलुआ के बाद इसका नाम तुमने क्या रखा ? रमलखिया नन्हीं सी जान की तरफ़ देखती हुई, बड़े ही गर्व के साथ , मुस्कुराती हुई बोली,’ सुखनी’ । क्या सुखनी ? इसमें ऐसा क्या दिखा, जो तुमने इसका नाम सुखनी रख दिया । तब रमलखिया सुख के कटे तीन दिन का बयान करती हुई बोली,’ जिस सुख की कल्पना , मैं स्वप्न में भी नहीं कर पाती थी ; उसे इसने मेरे लिए धरा पर उतार  लाया । इसका नाम सुखनी न रखूँ, तो और क्या रखूँ ? पड़ोसी को रमलखिया की मूर्खता पर दया भी आई और अफ़सोस भी हुआ । मन ही मन रमलखिया से कहा,’ सब ठीक है, लेकिन तीन दिन की सुखनी, सौ साल की दुखनी के साथ कैसे जीयेगी ? बढ़िया होता कि इसका नाम तुम बुलिया रख देती । चारो भाई-बहनों का नाम एक सा रहता ।’ बुदबुदाते हुए पड़ोसी – ’अच्छा तो, चलते हैं । कल अस्पताल से तुमको छुट्टी मिल जायेगी; जैसा कि नर्स बता रही थी । फ़िर वहीं मिलेंगे । ’ कहते हुए पड़ोसी , धीरे-धीरे उठते हुए, रमलखिया पर अफ़सोस करते हुए, उसके कमरे से निकल आये ।

 

          दूसरे दिन सुबह आठ बजे डाक्टर आये । जच्चा- बच्चा, दोनों को चेक अप करते हुए बोले,’ अब आज तुमको छुट्टी दे दी जा रही है । तुम दोनों स्वस्थ हो । बाद अगर कोई जरूरत हो तो यहाँ दिखाने आ जाना ।’

रमलखिया, जो इस तीन दिन को अपनी तकदीर का बदलता रूप मानकर जी रही थी; डाक्टर का यह एक शब्द, उसे हिलाकर रख दिया । (मन ही मन) तो क्या, जिस सुख को मैं अपनी तकदीर समझ रही थी, वह सुख नहीं, सुख का साया था ? रमलखिया मन मारकर बैठ गई । शाम के ठीक चार बजे, रमलखिया को उसका पति लेने आया और कहा,’ अस्पताल से छुट्टी हो गई है । चलो, अब हमलोग घर चलें और पत्नी को सहारा देते हुए नीचे रिक्से में लाकर बिठाता है । बैठते ही अपने घर पर रह रहे तीनों बच्चों का रोटी के लिए बिलखता मुख याद आता है और वह रो पड़ती है । पति धनपत जब पूछता है,’ क्या हुआ, तुम क्यों रो रही हो ?’ रमलखिया,’ कुछ नहीं, तुम नहीं समझोगे ।’

          घर पहुँचकर, रमलखिया के पुराने दिन फ़िर से लौट आये । वही जलाहार , और जलाहार । सुखनी भी अपने तीनों भाईयों के बीच बड़ी होती गई । एक दिन सुखनी लगभग जब १३-१४ की रही होगी, अचानक उसे लगा,’ मेरी माँ, मेरा नाम सुखनी क्यों रखी ? जब कि दुखनी नाम से मैं ज्यादा दिन जीनेवाली हूँ । रात-दिन रोटी के लाले, अंग ढ़ँकने के लिए अंग भर कपड़े भी नहीं, नाम सुखनी । यह कैसा मेल है ? दुखनी नाम रखने का, अवश्य कोई कारण रहा होगा ,चलकर माँ से पूछती हूँ ।’ 

सुखनी रमलखिया के पास जाती है, और पूछती है,’ अच्छा माँ, किसी काले का नाम गोरेलाल, पाकेट में फ़ूटी कौड़ी नहीं, नाम धनपत ! ऐसा ही कुछ मेरा भी नाम है न ? ऐसा तुमने क्यों रखा ? रमलखिया--- तुम नहीं समझोगी , बेटी ।

                                                     

झुँझलाती हुई , तुम न जानो तो अच्छा होगा और अपना मुँह फ़ेर लेती है ।  सुखनी समझ जाती है,’ इस राख के नीचे दबी कोई आग है । यह कहते हुए कि कोई बात नहीं माँ, तुम नाराज मत हो, मैं तो यूँ ही पूछ गई और चल देती है ।

          गरीबी का निवाला, बनती जा रही १६ साल की उम्र में, सुखनी जवान कम, बूढ़ी अधिक दीखने लगी थी । भूख की आग , जवानी को झुलसाते जा रहा था । सुखनी कुछ दिनों से बीमार रहने लगी थी । डाक्टर के पास ले जाने के पैसे नहीं थे , जो रमलखिया , अपनी सुखिया को दवा दिलवा पाती । कराहती- रोती सुखनी ,

 

 

विस्तर से लगकर रह गई थी । रमलखिया का देवताओं के आगे सर पटकना, दुआ- याचना; कुछ काम नहीं कर रहा था । आखिर इतनी कच्ची उम्र में , इतने भारी दुख को तीन दिन की सुखनी कैसे उठा पाती ?

            एक दिन सुबह-सुबह रोने- पीटने की आवाज सुनकर आस- पड़ोस के लोग दौड़कर सुखनी के घर पहुँचे ; तो देखा----- रमलखिया, छाती पीट-पीटकर रो रही थी और सुखनी थी कि कभी न जगने वाली सुख की नींद के आगोश में सो रही थी । इस करुणाद्र दृश्य को देखकर सबों की आँखें नम हो गईं । रमलखिया को चुप कराते हुए लोगों ने कहा ’रमलखिया, हमने कहा था न, तीन दिन की सुखनी, सौ साल तक दुखनी के साथ कैसे जीयेगी ? सो सुखनी, अपनी दरिद्रता को लात मारकर दुनिया को अलविदा कर सुखी हो गई । तुम क्या चाहती थी कि सुखनी, तुम्हारी तरह दरिद्रता के आगोश में जीये । ।

रमलखियाआँचल से आँसू पोछती हुई --- हाथ जोड़करनहींमैंने  ऐसा कभी नहीं चाहा   मैं तो उसे हमेशा सुखी देखना चाहती थी , तभी तो उसका नाम सुखनी रखा था ’  

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