Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सुयश का भिक्षु , सिंधु

 


सुयश का भिक्षु , सिंधु



निराकार का अचल साधक
सुयश का भिक्षु , सिंधु
युगों से नभ श्रुति में
गर्जन कर भरता आ रहा

मैं भूमि में विलय नहीं चाहता
मेरी सुनो, मुझे अमरता दो
बजते जहाँ शत वाद्ययंत्र
गुंजता नाद, मृदु मोह मंत्र, मैं
वहाँ रहना चाहता,मुझे वहाँ बुला लो

यहाँ कण-कण में है ज्वाल भरा
जो हर क्षण मुझको मिटा दे रहा
मैं निर्जन वन में जीना नहीं चाहता
प्रतिकूल पवन,को और सह नहीं सकता
गिरा हूँ भूमि पर, तुम्हारे ही विपिन से
विदा रात्रि की संधि को याद करो
तुम अपनी दिव्य शक्ति का परिचय दो
इसके पहले कि चिता पर चढ़ जाऊँ
चाँद- तारे रहते जहाँ, वहाँ बुला लो


जल से जलद तो बनाया तुमने
मगर काल - ताल को संग कर
मुझको ज्वलितमय प्राण-योगी बना दिया
मेरी लहरों की साँस- साँस पर प्रभंजन लोटता
अंतरिक्ष का महाकाल ,मुझ पर चिंघाड़ता
ताप-कलुष मेरी लहरों को अब शीतल होने दो
तुमने नर को अस्थि, मांस, मज्जाएँ दिया
मुझमें क्या गुण श्रेष्ठ नहीं नर से, जो
अग्नि- शिखा से धधक रहे,मुझको प्राण दिया

युग- युग से ललक रहे मेरे प्राण की
इच्छा की आकांक्षाओं के कंकालों को
अब तो नूतनता में अवतरित कर दो
योगी- सा अवश, अकाम, निरुद्देश्य भटकती
मेरी अभिशापित जीवन - धाराएँ
उसे शापमुक्त कर,अपना चरण स्पर्श करने दो



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