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स्वतंत्रता संग्राम में लाला लाजपत राय का अवदानस्वतंत्रता संग्राम में लाला लाजपत राय का अवदान

 

स्वतंत्रता संग्राम में लाला लाजपत राय का अवदानस्वतंत्रता संग्राम में लाला लाजपत राय का अवदान
----- डॉ० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई

हमारे विश्व विख्यात स्वतंत्रता सेनानी, लाला लाजपत राय का नाम, उन सेनानियों में शुमार है, जिन्होंने भारत माता को गुलामी की जंजीर से आजाद कराने के लिए अपनी जान हँसते-हँसते कुर्बान कर दी । अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त लाला लाजपत राय को “पंजाब केसरी” की उपाधि देकर देश के लोगों ने सम्मानित किया । भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के सपूतों में गाँधी के बाद लाला लाजपत राय का नाम आता है ।
लालाजी का जन्म 28 जनवरी 1865 में पंजाब के मोगा जिले में हुआ था । किशोरावस्था में दयानंद सरस्वती से मिलकर पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा की स्थापना इन्होंने ही शुरू कराई थी । भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस में गरम दल के तीन प्रमुख नेता---- लाल, बाल व पाल ( लाला लाजपत राय , बालगंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल ) इतने प्रभावी व्यक्ति थे कि जनता आज भी ससम्मान उनका अनुसरण कर, अपने को धन्य समझती है ।
1905 में जब अंग्रेजों द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया, तब लाला लाजपत राय ने सुरेन्द्र नाथ बनर्जी और बिपिन चन्द्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेजों के इस फ़ैसले की जमकर बगावत की ; देश भर में स्वदेशी आंदोलन चलाने की प्रमुख भूमिका लालाजी ने निभाई । इसके बाद तो लाला लाजपत राय की लोकप्रियता सातवें आसमान पर पहुँच गई । वे गोखले के
साथ 1905 में काँग्रेस प्रतिनिधि के रूप में इंगलैंड गये । वहाँ उन्होंने जनता के समक्ष भारत की आजादी की बात पुरजोर तरीके से रखी; लेकिन उनकी लोकप्रियता से डरकर अँग्रे्जी शासन उनका 2014 से 2020 तक उनके भारत लौटने पर रोक लगा दिया । 1907 में पूरे पंजाब में उन्होंने खेती सम्बंधित आन्दोलन का नेतृत्व किया और वर्षों बाद वे जनेवा में राष्ट्र के श्रम प्रतिनिधि बनकर गये । उन्होंने 1913 में जापान और अमेरिका की यात्राएँ की तथा अमेरिका में 15 अक्टूबर 1916 को “होम रूल लीग” की स्थापना की ।
नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय संघ सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते उन्होंने राष्ट्रीय छात्रों से राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने का आह्वान किया । 1921 में उन्हें जेल जाना पड़ा । उन दिनों बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन बिहारी पाल , ये तीनों त्रिमूर्ति के नाम से भी जाने जाते थे । इन्हीं नेताओं ने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वंतत्रता की मांग की थी ; उसके बाद समूचा देश इनके साथ हो गया । पंजाब में आर्य समाज को लोकप्रिय , इन्होंने ही स्वामी दयानंद सरस्वती से मिलने के बाद किया । इनके पिता लाला राधाकृष्ण अग्रवाल पेशे से अध्यापक और उर्दू के प्रसिद्ध लेखक थे । लाला लाजपत राय को भी लेखन और भाषण में बहुत रूचि थी । वे कुछ दिनों तक हरियाणा के रोहतक , लाहौर और हिसार शहरों में वकालत किये । वे चाहते थे, स्वराज्य हमें स्वाबलंबन से मिले । 1897 और 1899 में देश में आये अकाल-पीड़ितों की सेवा उन्होंने युद्ध-स्तर पर की, जब कि ब्रिटिश शासक ने इस ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा ।


30 अक्टूबर 1928 को इंगलैंड के प्रसिद्ध वकील सर जोन साइमन की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय आयोग लाहौर आया, जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे । इस कमीशन का वहिष्कार पूरे भारत में शुरू हो गया । हर तरफ़ काले झंडे, तथा ’गो बैक’ के गगनभेदी गर्जन गुंजने लगे ; जिसकी अगुवायी पंजाब केसरी लाला लाजपत राय कर रहे थे । फ़िरंगियों की नजर में , देशभक्ति का इस प्रकार डंका पीटते रहना, अच्छी बात नहीं थी, अत: इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज सिपाहियों से लाठी चार्य करवा दिया, जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गये और 17 नवम्वर 1928 को उन्होंने सदा के लिये अपनी आँखें मुँद ली । लेकिन उनकी शहादत बर्बाद नहीं गई । उनकी मृत्यु के ठीक एक महीने बाद , बर्बर लाठी-चार्य का आदेश देने वाले ब्रिटिश पुलिस अफ़सर सांडर्स को राजगुरू , सुखदेव और भगत सिंह ने गोली मारकर उनकी हत्या की और इसका बदला लिया । इस साहसिक कार्य के लिए इन तीनों स्वतंत्रता सेनानियों तथा भारत के सपूतों को फ़ांसी पर चढ़ना पड़ा । आज इन सपूतों को यादकर आँखें नम हो आती हैं, मगर सर गर्व से हिमालय सरीखा खड़ा हो जाता है ।

30 अक्टूबर 1928 को इंगलैंड के प्रसिद्ध वकील सर जोन साइमन की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय आयोग लाहौर आया, जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे । इस कमीशन का वहिष्कार पूरे भारत में शुरू हो गया । हर तरफ़ काले झंडे, तथा ’गो बैक’ के गगनभेदी गर्जन गुंजने लगे ; जिसकी अगुवायी पंजाब केसरी लाला लाजपत राय कर रहे थे । फ़िरंगियों की नजर में , देशभक्ति का इस प्रकार डंका पीटते रहना, अच्छी बात नहीं थी, अत: इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज सिपाहियों से लाठी चार्य करवा दिया, जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गये और 17 नवम्वर 1928 को उन्होंने सदा के लिये अपनी आँखें मुँद ली । लेकिन उनकी शहादत बर्बाद नहीं गई । उनकी मृत्यु के ठीक एक महीने बाद , बर्बर लाठी-चार्य का आदेश देने वाले ब्रिटिश पुलिस अफ़सर सांडर्स को राजगुरू , सुखदेव और भगत सिंह ने गोली मारकर उनकी हत्या की और इसका बदला लिया । इस साहसिक कार्य के लिए इन तीनों स्वतंत्रता सेनानियों तथा भारत के सपूतों को फ़ांसी पर चढ़ना पड़ा । आज इन सपूतों को यादकर आँखें नम हो आती हैं, मगर सर गर्व से हिमालय सरीखा खड़ा हो जाता है ।



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