विश्वास ( TRUST )
हर व्यक्ति को अपने जीवन-मंच पर ,कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जिन्हें चाहे-अनचाहे निभाने पड़ते हैं । इस उधेड़बुन को हम नाटक भी कह सकते हैं, लेकिन इनमें कुछ किरदार इतने दमदार होते हैं, जिनके साथ हम नाटक नहीं कर सकते । ये विश्वास की नींव पर पनपती हैं , और उसी पर खत्म हो जाती हैं ; जैसे ममता, त्याग और पवित्रता की मूर्ति माँ । कहते हैं, माँ की ममता का घर ,किसी मंदिर से कम पवित्र नहीं होता । वहाँ तीनों लोक का सुख है, तो तुलसी की तरह रोगमुक्त भी है । दूसरा पिता, जिसका खून संतान के रग-रग में जीवन बनकर दौड़ता रहता है । भगवान के रूप का साक्षात प्रमाण इससे बढ़कर और क्या होगा कि जिसके देह का विस्तार ही हमारी काया है । ये अलग बात है कि आज आधुनिकता की लिवास चढ़ी आँखें , इस खून को पानी कह दे ।
आज के युग में स्वार्थ सर्वोपरि हो चला है । अत: जहाँ स्वार्थ-पूर्ति नहीं होती, हम उसे झूठा और बेईमान करार दे डालते हैं । हमारा मन और बुद्धि, दोनों ही व्यक्तिगत है , बावजूद जब हम अपनी मनीषा से काम नहीं लेते, और दूसरों की बुद्धि तथा मन पर चलते हैं, तब रिश्ते में खाई आ जाती है । हम आँख रहते अंधा और दिमाग रहते, बेसमझ हो जाते हैं । हमें उजले फ़ूल और मुरदे की कफ़न में कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ता । हम, मुरदे के उड़ते कफ़न को दूर से ही देखकर सोचते हैं, वहाँ उजले कमल या गुलाब हवा में मतवाले होकर झूम रहे हैं । दुख तो इस बात की होती है , नजदीक कोई जाता नहीं । नजदीक जाने से शक दूर होती है, और विश्वास नजदीक आता है । इसलिए ,यह कैसे मान लिया जाय कि सारी सृष्टि में दोष है, केवल दोष निकालने वाला, दोष-द्रष्टा ही निर्दोष है ।
मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण अपने समानधर्मी व्यक्तियों के सुख-दुख से किसी भी सीमा तक सुखी या दुखी होता है , परन्तु इस सहानुभूति का मार्ग स्वानुभूति के मार्ग के समान सरल नहीं होता । कभी स्वार्थों के संघर्ष के कारण, कभी अनभ्यास से, कभी अतिशय अहं के कारण , कभी अपने जीवन के प्रति विशेष बीतरागिनी दृष्टि के कारण हमारी रागात्मक वृतियाँ कुंठित हो जाती हैं, तब उसके लिए क्रूरता भी विनोद हो जाती हैं । एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिये, वह यह कि यथार्थ का यथातथ्य ग्यान भी संदिग्ध ही रहता है । आकाश की महाशून्यता में कोई रंग न होने पर भी हमारी दृष्टि उसमें गहरी नीलिमा देख लेती है, और प्रभात-संध्या वेला में रंगों का ज्वार भी ; इस तरह प्रत्येक वस्तु भिन्न-भिन्न कोण से भिन्न दिखाई दे सकती है । दृष्टि और सोच की अपूर्णता भी प्रत्यक्ष ग्यान को प्रभावित करती है और जब प्रत्यक्ष ग्यान की ऐसी स्थिति है, तब अन्य जरिये द्वारा अर्जित यथार्थ के विषय में कुछ कहना ही व्यर्थ है ।
विश्वास की कसौटी , काल का क्षण नहीं बन सकता, क्योंकि काल पर मनुष्य द्वारा स्वनिर्मित सीमावरण होता है, जैसे किसी विक्षिप्त व्यक्ति के सुख-दुखात्मक संवेदन उसी रूप में अन्य व्यक्तियों की अनुभूति का विषय नहीं बन पाते । कारण उनमें संवेदन की सारी तीव्रता होने के बावजूद भी उनका बौद्धिक विघटन संवेदन की संश्लिष्टता को विघटित कर देता है ।
अक्सर देखा गया है , मनुष्य अपने अधिकार के प्रति सजग तो रहता है, मगर कर्त्तव्य को भूले रखता है । उसे शायद यह नहीं पता कि अधिकार और कर्त्तव्य , दोनों में फ़ूल और सुगंध का रिश्ता है । जहाँ कर्त्तव्य नहीं, वहाँ अधिकार की सोच मूर्खता है, अग्यानता है । सामाजिक कर्त्तव्यों की अधूरी जानकारी रखने वाला इन्सान , मिलनसार, स्नेही अथवा उदार नहीं हो सकता । ऐसे लोग अपनी भावनाओं को पूरा करने के लिए , दूसरों की भावनाओं का अपमान करने से जरा भी नहीं हिचकिचाते । नितांत अपनी स्वार्थ भावना में वशीभूत लोग ,जीवन की हड़बड़ी में सही आंकलन नहीं करने के कारण कभी-कभी अपनी अयोग्यतावश, अपने रिश्तों का व्यवसायीकरण कर लेते हैं तब रिश्ते लाभ—नुकसान के तराजू पर तौलने से मैले हो जाते हैं । यदि हर आदमी यह चिंतन करने लग जाय कि रिश्ते को रबर की तरह खीचने से टूट जाते हैं, और टूटे रिश्ते कभी पहले की तरह जुड़ते नहीं ; अगर जुड़ भी जायें, तो गाँठ रह जाती है । हम रिश्ते का त्याग नहीं कर सकते , क्योंकि ये रिश्ते हमारी जीवन-यात्रा में नव-नव रूपों में युगों-युगों से संस्कृत होते आ रहे हैं । इसलिए किसी एक काम या ऐसी ही किसी एक कसौटी पर परखकर हम सम्पूर्ण रूप से किसी को खरा या खोटा नहीं कह सकते । देखा गया है कि कपटी से कपटी लुटेरा भी साथियों के साथ जितना सच्चा रहता है, उसके आगे सत्यवादी भी लज्जित हो जाये । कठोर से कठोर अत्याचारी भी अपनी संतान के प्रति इतना कोमल रहता है कि कोई भावुक भी उसकी तुलना में नहीं ठहरता । सारांश यह है कि जीवन के एक छोर से दूसरे छोर तक एक स्थिति में कोई नहीं रह सका और ऐसा जीवित मनुष्य के लिए संभव भी नहीं है ।
वास्तव में अपनों के होने की गहराई की अनुभूति निरंतरता से रहित होने पर भी कम नहीं हो पाती, न ही कठिन संघर्ष के मेले में खोती है । इसलिए संसार में सबसे अधिक दण्डनीय व्यक्ति वह है, जिसने यथार्थ के केवल कुत्सित पक्ष को जमाकर रिश्ते को शक के दायरे में लाकर कैद कर देता है । ऐसे फ़ैसले को हम पशु-जगत की कल्पना कहेंगे । स्वयं के प्रति आस्थावान व्यक्ति ही विश्वास के प्रति आदर्श उपस्थित कर सकता है ।
का व्यवसायीकरण कर लेते हैं तब रिश्ते लाभ—नुकसान के तराजू पर तौलने से मैले हो जाते हैं । यदि हर आदमी यह चिंतन करने लग जाय कि रिश्ते को रबर की तरह खीचने से टूट जाते हैं, और टूटे रिश्ते कभी पहले की तरह जुड़ते नहीं ; अगर जुड़ भी जायें, तो गाँठ रह जाती है । हम रिश्ते का त्याग नहीं कर सकते , क्योंकि ये रिश्ते हमारी जीवन-यात्रा में नव-नव रूपों में युगों-युगों से संस्कृत होते आ रहे हैं । इसलिए किसी एक काम या ऐसी ही किसी एक कसौटी पर परखकर हम सम्पूर्ण रूप से किसी को खरा या खोटा नहीं कह सकते । देखा गया है कि कपटी से कपटी लुटेरा भी साथियों के साथ जितना सच्चा रहता है, उसके आगे सत्यवादी भी लज्जित हो जाये । कठोर से कठोर अत्याचारी भी अपनी संतान के प्रति इतना कोमल रहता है कि कोई भावुक भी उसकी तुलना में नहीं ठहरता । सारांश यह है कि जीवन के एक छोर से दूसरे छोर तक एक स्थिति में कोई नहीं रह सका और ऐसा जीवित मनुष्य के लिए संभव भी नहीं है ।
वास्तव में अपनों के होने की गहराई की अनुभूति निरंतरता से रहित होने पर भी कम नहीं हो पाती, न ही कठिन संघर्ष के मेले में खोती है । इसलिए संसार में सबसे अधिक दण्डनीय व्यक्ति वह है, जिसने यथार्थ के केवल कुत्सित पक्ष को जमाकर रिश्ते को शक के दायरे में लाकर कैद कर देता है । ऐसे फ़ैसले को हम पशु-जगत की कल्पना कहेंगे । स्वयं के प्रति आस्थावान व्यक्ति ही विश्वास के प्रति आदर्श उपस्थित कर सकता है ।
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