तज दो अपने तप का काल
जिसके स्मृति - स्वप्न को , मैंने
अपनी मृदु पलकों पर पाला
जिसके आगे मैंने अपने स्वर्ण-तन को
प्रणय थाल में पाटल –सा सजाया
आज वही पूछ रहा मुझसे
तुम्हारे बिखरे जीवन की
क्या है विस्तृत - क्षार कथा
क्यों तुमने अपने प्राण-रूप के
कण-कण को ज्वाला में ढाला
क्या वसुधा के जड़ – अंतर सा
तुम्हारे तन - अंतर में भी
कैदी है कोई ज्वाला
जो नित जल - जलकर, तुम्हारी
पीड़ा के दाग को आलोकित करती
आँसू बन ढल,कपोलों को करती गीला
मेरी मानो ! कल्पना का यह सुंदर
जगत , अगर इतना मधुर होता
तब सुख-स्वप्नों का दल, पलकों के
भीतर अंधकार में,क्यों जागता-सोता
विकलता, हँसी व्यर्थ बिखेरकर
क्यों इतना खिलखिलाती
कुसुम-कानन में,मंद पवन से प्रेरित
होकर, सौरभ साकार हो नहीं घूमता
इसलिए छोड़ दो अब सोचना
कैसे तुमने अपने
यौवन के श्लथ वेग को सँभाला
जिसे स्वयं वसुधा नहीं सकी सँभाल
इसके पहले कि,बुझ जाये जीवन की
ज्योति, तज दो अपने तप का काल
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