Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तम की धार पर डोलती जगती की नौका

 

तम की धार पर डोलती जगती की नौका


क्रियाहीन    चिंतनके   अनुचर , तुमको   क्यामालूम

कि  गंगा  किस  चोटी  से  उतरकर, कहाँविलीन   होती  है

तालतालके  कम्पन  से  उठता  जो  द्रुत  गान, किसके हैं

तुम केवल ग्यान प्रलापी हो,तुमको जग-ज्योति का नहीं हैध्यान

तुमकेवल  चिंताओं  को  भाग्य  पर टालकर सोना जानते हो


तुम्हारी  नजरों  में  जो  मनुज दो इन्सानों के बीच

पैदाकरे  व्यवधान , वहीसर्वग्यानीहै,   पर

तुम  नहीं  जानते, ऐसे  दानवी  बुद्धि   वाले  लोग

ग्यानी  नहीं  कहे जा सकते, यह स्वभाव तो श्रृगाल

और  कुकुरों  में  होता  है ; विहग, लघु प्राणी होकर 

भी नीरवता के कानन में कलरव कर संगीत भरता है


अगर  तुम जिंदगी को सचमुच जानना चाहते हो

तो  बुत  के  उन  कारीगरों   से  जाकर  पूछो

कैसे  वे  मिट्टी  की  छाती  में चेतना भरते हैं

कैसे बेजान फूल,मन और प्राण दोनों को बेधते हैं

क्यों  पीड़ा  की  भाषा  राग  बन जाती है, क्यों

वारिद  के  तप्त बिंदु गिरते हैं, नयन अंतरिक्ष से

उनसे  बेहतर  तुमको  और कौन बता सकता है





मातृ  मुख  की  वेदना  और वैधव्य का चीत्कार तुमने सुना कहाँ

तुम  केवल  इतना  सुने  हो, कि  जब  सागर  उबलता है, तब 

भुवन  पर  केवल  अग्नि  आता  है, पर यह नहीं सुना कि जब

कल्पना उबलती है,तब गरल जल और पीयूष जल,दोनों निकलते हैं

तुम  अगर  ऐसा  सोचते  हो, कि खींचकर  मृत्ति पर प्रभुता की

रेखा,  मिटा   सकते  हो  काल  का  लेखा, तो  यह   तुम्हारी 

शिशु  सोच  है, क्योंकि  मृत्यु  में  है अमरता का वास, विजय

की  इस  भूमि  पर  आज  तक किसी प्राणी ने नहीं कर पाया

अपना  अधिकार, सदा  रही  यह   भूमि   मृत्यु   के   पास


इसलिए  तुम  आशा की झलक बनकर, जग को पहचानो 

कलियों   के   मुद्रित  पलकों  में  जो  सिसकरही है

गंध  अधीर  बाहर  आने  को , उसके  दर्द  को  समझो

हिला  रहा  है  कौन निष्ठुर ,कुंजों के किन द्रुम- कुंजों को

चमक   रहा   था  जो   शशि  अभी  तकगगनपर

वह   किस  घन  वन  केपात  में  छुपगया, खोजो

क्षुब्ध हृदय को करुणा की किरणों से पुलकित करना सीखो

डोलती  प्रखर  धार पर जगती की नौका को, उसे संभालो

स्वार्थ और प्रभुता की बाढ में, मन को शांत मत बहने दो

कौन  जाने  कल  तुमको  भी  जग की जरूरत पड़ जाए 

तुम  अगर  यूँ ही बहते रहे, प्रिया के संग अतल जल में

सुनते  रहे परिजात पुष्प के नीचे बैठकर, कंठकामिनी की

सुधा   भरी   असावरी   को, सिररखकरबाँहोंमें

तो  उरउर  से जो उठ रहा है, मादकता का तरल तरंग

            बिचर रही है मौन होकर पवन संगउसे कैसे सुन पाओगे

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