----डा० श्रीमती तारा सिंह
’ तकदीर का लिखा और नेति का बदा, कभी नहीं मिटता’ , यह कहाँ तक सच है, मैं नहीं जानती । कारण जब कोई दुर्घटना या घटना घटती है, तब हम यही सोचकर , चुप रह जाते हैं कि ऐसा होना शायद तकदीर में ही लिखा होगा, तभी तो हुआ । पर तकदीर क्या है, इसमें क्या – क्या लिखा है; कोई नहीं जानता । फ़िर भी हम इसे मानते हैं । मुहम्मद इकबाल ने ठीक ही कहा है,’ खुद को करो बुलंद इतना कि तकदीर भी पूछे , आखिर तुम्हारी रजा क्या है ।’ अर्थात हम तकदीर से अपने कर्म द्वारा टकरा सकते हैं । पर कहाँ तक, यह मुझे नहीं मालूम । खैर, जो भी हो, मैं तो बस इतना ही जानती हूँ,’ आदमी, जब माँ के गर्भ में रहता है, तभी उसकी तकदीर तय हो जाती है । अन्यथा जनमते ही बच्चा मर क्यों जाता है ? अमीर माँ – बाप का बॆटा बड़ा होकर , गरीब क्यों हो जाता है । कोई इनसान राह चलते फ़िसलकर , दुनिया से विदा क्यों हो जाता है ; इत्यादि, इत्यादि हमें यह सोचने के लिए बाध्य कर देता है कि यह संसार , हमारी मर्जी से नहीं, किसी और की मर्जी से चल रहा है । वो जिसे जैसा रखना चाहता, वह वैसा बनकर जीता है ।
तभी तो भिखारी की संतान, भिखारी बनकर ही क्यों जीता है , क्योंकि तकदीर में उसे भिखारी बनकर जीना लिखा होता है ? दिन – रात भीख माँगकर भी एक भिखारी अपने तकदीर को नहीं बदल सकता है । जब कि एक भिखारी की रोजाना आय १००/- से २००/- रुपये होती हैं । इतने ही पैसे, एक पान – चाय का दूकानदार भी रोजगार करता है ; तो कहाँ उसके बच्चे भीख माँगते हैं । मैंने अपनी आँखों से देखा है, पीढ़ी दर पीढ़ी को भीख माँगते हुए । इस संदर्भ में मुझे एक वाकय याद आता है । जब मेरा छोटा बेटा, तारातल्ला (कोलकाता ) में मेरिन की पढ़ाई कर रहा था, उसके कालेज के हाते के ठीक बाहर वह मंदिर आज भी है । जहाँ रोज सुबह – शाम हजारों की तायदाद में श्रद्धालुओं की भीड़ होती है । मंदिर इतना बड़ा है कि लोग धूप ,बरसात से बचने भी वहीं पहुँच जाते हैं । मैं भी अपने बेटे के अध्ययन के दौरान लगभग तीसो दिन वहाँ बैठा करती थी । यह जगह मेरे घर से लगभग पन्द्रह – बीस किलो मीटर दूर है । तब भी मैं रोज शाम को वहाँ जाती थी । बेटे का मोह वहाँ खीच ले जाता था । कारण उसे होस्टल में जो खाना दिया जाता था, उसे खाकर एक बच्चे का स्वस्थ रहना मुश्किल था । इसलिए मैं घर से खाना , जूस लेकर नित शाम को उस मंदिर में पहुँचकर अपने बेटे के आने का इंतजार किया करती थी । जब वह शाम के पैरेड के बाद आकर खाना खा लेता था , तब मैं २ घंटे की बस यात्रा कर घर आती थी । इसी दौरान शाम के वक्त, मैं देखती थी कि एक बूढ़ा
बाबा ( भिखारी ) मंदिर के पांगण में आता है और बगल के कुंए पर स्नान कर, मंदिर में जाकर
फ़ूलमाला चढ़ाता है ।
उसके बाद मंदिर के एक कोने में बैठकर सूनी आँखों से हर आने – जाने वाले को निहारा करता है । लगभग यह सिलसिला चार साल तक चला । एक दिन बाबा ने मुझसे पूछ लिया,’ बेटा ! तुम यहाँ रोज औरत होकर क्यों आती हो ? क्या बात है ? मैं बाबा से रोज यहाँ आने का कारण बताई; सुनकर बाबा की आँखों में आँसू आ गये । कहा,’ माँ की परिभाषा को और कितना लम्बा करना चाहती हो , तुम ।’ मैंने कहा.’ बाबा ! यह तो मेरा फ़र्ज है, जिसे मैं पूरा कर रही हूँ ।’ सुनकर , मुस्कुराते हुए बाबा ने कहा,’ ईश्वर करे, तुम अपने कार्य में सफ़ल होओ ।’ तभी मैंने बाबा से पूछ लिया,’बाबा ! आप भी तो यहाँ रोज शाम को सोने आते हो । आपके परिवार में आपके अलावा और कोई नहीं हैं क्या ? ’ सुनकर बाबा ने कहा,’ हाँ थे, आज से पचास साल पहले तक मेरे पिताश्री मेरे साथ थे । तब मैं और मेरे पिता , दोनों यहाँ सोने आते थे । अब कोई नहीं है, मैं अकेला हूँ ।’ सुनकर कुछ अजीब सा लगा । मैंने कहा,’ क्या आपके पिताजी भी भिक्षा ------------------।’
उन्होंने कहा, ’ हाँ ! यह रोजगार करना मैंने अपने पिताश्री से ही सीखा है । मेरे पिताजी भी मेरी ही तरह दिन भर के भिक्षाटन से जो पैसे मिलते थे, उससे फ़ूल, धूप चढ़ाना इस मंदिर में कभी नहीं भूलते थे , चाहे पेट भरने के पैसे बचे या नहीं । मैं भी यही करता हूँ । बारिश, शीत , प्रत्येक दिन मैं स्नान कर पहले यहाँ फ़ूलमाला अर्पण करता हूँ, फ़िर भोजन करता हूँ । भगवान के प्रति बाबा की इतनी श्रद्धा सुनकर मैं हैरान हो गई और मन ही मन सोचने लगी,’ जिस भगवान की पूजा बाबा के पिता अपना पेट काटकर करते – करते विदा हो गए, बाद बाबा कर रहे हैं; बावजूद मंदिर में बैठे भगवान का दिल नहीं पसीजा । इन अस्सी सालों के प्रेम के इनाम स्वरूप कुछ भी नहीं । यह कैसा भगवान है ? अब तो बाबा के भी दुनिया से विदा होने के दिन करीब आ चुके हैं ।’ मेरी चुप्पी, बाबा को भाँपते देर न लगी । बाबा ने कहा, यह सब तकदीर है, जिसे कोई नहीं बदल सकता । मैंने कहा, बाबा ! इस तकदीर को लिखने वाला भी तो यही है । फ़िर अपने लिखे को बदल क्यों नहीं सकता । बाबा ने कहा,’ तुमने सुना नहीं; तकदीर का लिखा और भाग्य का बदा कभी नहीं मिटता ।’
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