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तिमिर लेती जब हिल्लोर

 


तिमिर लेती जब हिल्लोर

                                                                                                                 --- डा० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई

 

अनिल  विलोड़ित  गगन  सिंधु  के

तुमुल ताल में, तिमिर,प्रलय बाढ़ सी

निर्भय  होकर  लेती  जब  हिल्लोर

तब  शिशिर शयित पल्लव सा मेरा

तन, अंतर  की शंका से काँप उठता

ऐसा  लगता , मुझे  उड़ा  ले जाने

क्षितिज  को  फ़ाड़ , दल-बल लेकर

उतर    रहा    हो    कोई   चोर

 

जो  मेरे  प्राण संग, मेरे जीर्ण जीवन का

वस्त्र  भी अपने  साथ  उड़ा  ले जायगा

तनु  से  लिपटा  उस  इतिहास के सिवा

और कुछ नहीं बचेगा शेष,जब वह जायगा

 

जिसमें  संग्रहित  है मेरे दग्ध जीवन का रवरोर

रेखांकित  है, आशा- आकांक्षास्मित, कल्पना के

क्रीड़ास्थल  का  परिहास, जहाँ  मेरे  भंग-अंगों

का होता था नर्तन,व्यथित प्राण मचाता था शोर

 

कहता   था   झंझा   प्रवाह  से  निकला

मनुज  जीवन  को, मिलता नही कहीं ठौर

फ़िर  भी  चिर  चिंतन  का प्रतीक मनुज

जनम काल से मनाता आ रहा मरण शोक

 

 

 

धूमिल   रेखाओं   से   सजीव  चंचल

मित्रों  की  नव  कलना  कर, अग-जग

की   कम्पन  तरंग  पर  चढ़ ,चीखता-

चिल्लाता ,घनमाला  में अपने जीवन के  

क्षूद्र   अंश   को   देख  रोता – पीटता  

पत्रों के प्रच्छाय नीड़ में कहाँ छुपा है वह

वषंत, धरती  से व्योम तक लगाता दौड़

 

पीड़ा सहने का सामर्थ्य नहीं, फ़िर भी

पूछता ,जीवन – सिंधु का कहाँ है छोड़

जीवन  नौका  किस  घाट  ले  जाऊँ

किस  ज्वाला  के  अंक में कूद नहाऊँ

कौन   पथ   जाता , मणिमुक्ता  के

गुफ़ा       द्वार       की    ओर

 

 

 

 

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