तुम बिन दिवाकर आभाविहीन
तुम तो सो रही थी, मेरे हृदय कमल की
कोमल पंखुड़ियों की सुख - सेज पर
सहसा किस चातक की रस चकित पुकार
तुम्हारे मृदु प्राण को, इतना भा गया,जो
काटकर मेरे प्राणों के बंधन को, वह
निस्सीम गगन में जाकर खो गया
क्या रूखा था स्नेह सरोज हमारा
या तुमने समझा,दिल के टुकड़े तो होते नहीं
सदा से पत्थर ही पिघलता आया
पर क्या तुमने सोचा कभी, वारिद का
तप्त बिंदु, अंतरिक्ष में, संध्या का
मलिन तारा , कहाँ से आया
अरि गलता नहीं पाषाण कभी, जलधि के
अंक से मिलने,हिमखंड हमेशा गलता आया
ऐसे तो मैं तुम्हारे सीमा–बंधन से आगे, कभी नहीं जीया
तुम्हारा प्रेम मेरा जीवन- निधि है,बस इतना समझा
फ़िर भी मेरे जीवन में,आशा की निस्सीमता क्यों भरा
अब दिवस रोदन में, रात आहों में काटता
तुम्हारी सरोज मुख मुस्कान बिना,सूरज आभाविहीन लगता
दृग से झड़ते अश्रु का ग्यान नहीं रहता
माधवी कुंज की छाया में झड़-झड़कर झड़ता रहता
फ़िर भी जाने मुझसे क्या भूल हुई,क्या अपराध हुआ
जो उसने, दो दीपों की सम्मिलित ज्योति शिखा को
बुझाकर, मेरी जीवन-संध्या में अंधेरा भर दिया
कहा, निज वक्र रेखाओं से मनुज का भाग्य
यहाँ अशांत रहता, मगर यह नहीं बताया
मनुज भाग्य की यह विकृत रेखा,कौन बनाया
मैं तो आज भी प्रीति-प्रताड़ित हृदय-सुधा लिए
तुमको अर्पित करने,चिर दग्ध दुखी धरा पर हूँ खड़ा
सोचता हूँ, सपनों के गतिहीन विमान पर
बिठाकर, एक दिन तुमको ले आऊँगा यहाँ से उड़ा
नूतन निशि के नयन-अश्रु से अंग-अंग धोकर
तुमको , फ़िर से करूँगा पहले सा नया
हृदय विपिन की कली का रस, तुम्हारे
शशिमुख पर लेपकर, अपनी दीनता के
दर्प में बैठकर, भर- भरकर ,छक -छककर पीऊँगा
तुम्हारे निश्छल यौवन की मदिरा का प्याला
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