तुम बिन जग सूना -- डा० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई
जिन आँखों में सूरज- चाँद खेलता था, उन आँखों में सागर को हिचकोले खाते देख, मेरा शरीर सन्न रह गया । मन ही मन मैं बोल पड़ी,’ यह क्या, चाची के साथ नियति ने ऐसा कौन खेल खेला, जिससे कि अपने घर- मंदिर में पूजा के दीये की तरह जलनेवाली, शांत चाची आज, मुझे देख बिलबि- ला उठी । मैं पूछने ही वाली थी कि चाची ,’चाचाजी कहाँ हैं ? क्या उनसे आपका अब बनता नहीं ?’ तभी मेरी नजर पलंग पर रखे दो तकिये की जगह एक पर चली गई । मैं समझ गई , चाची की दुनिया उजड़ गई है ; तभी चाची की बड़ी-बड़ी आँखों में समुद्र गरज रहा । चाची कुछ कहती,उसके पहले ही, मैं बोल पड़ी,’ अच्छा तो चाची ! मैं चलती हूँ , फ़िर आऊँगी ।’ मेरा कहा पूरा भी नहीं हुआ था कि चाची बोल पड़ी ,’ हाँ,बेटा ! जाओ, ठूठे पेड़ के नीचे कौन ठहरता ? अब तो मेरे अपने भी इसे काटने पर तुले हुए हैं । सोचते हैं , जितना जल्द हो यह खत्म हो जाये, उतना अच्छा । बहू कहती, ’ सुबह देख लेने से दिन खराब हो जाता है । घर के आँगन में ठूठा पेड़ जगह भी लेता है और छाया नहीं देता है ।’ मेरी शंका की पुष्टि तभी हो गई, जब चाची अपने पोते वरुण को आवाज दी, ’बेटा ! जरा एक ग्लास पानी बुआ को लाकर देना ।’ दरवाजे से बाहर निकलते हुए, पन्द्रह वर्षीय वरुण ने, जो दो साल पहले तक दादी के आँचल से लिपटा सोता था , मुँह बिचकाकर कहा ,’ क्यों तुम कोई काम कर रही हो क्या, उठकर खुद ले आओ,मेरे हाथ में फ़ुट्बाल है, मैं खेलने जा रहा हूँ’ । यही वरुण अपना फ़रमाइश की बात दादाजी से ऐसे मनवाता था, जैसे दादा नहीं कोई कर्जदार हो । आज वरुण में कितना बदलाव आ गया । सचमुच आदमी कुछ नहीं होता, उसे बड़ा और छोटा समय बनाता है । आज समय, चाची के साथ नहीं, तो चाची की घर में कोई धाक नहीं ।
चाची , आँचल से आँखें पोछती हुई,मुझसे कही , ’ अंजलि रूको, बहुत दिन बाद आई हो, एक ग्लास पानी तो पीकर जाओ । मैं अभी लेकर आती हूँ और चाची दीवार का सहारा लेकर उठने की कोशिश करने लगी । चाची के मन में कितनी पीड़ाएं हैं । कल्पना कर मेरी आँखें छलछला
उठीं । मैं रो पड़ी । चाची मुझे रोती देख, फ़िर से बैठ गई और मेरा आँसू अपने आँचल से पोछती हुई पूछी ,’ अंजलि, तू रोती क्यों है ? घर में सब कुछ ठीक-ठाक तो है ?’
मैंने कहा --- हाँ चाची, सब ठीक है ।
चाची --- तो फ़िर ये आँसू ? मैं चाची से लिपट गई और बोली,’ चाची, आप का हाल अब और अपनी आँखों से मैं देख नहीं सकती । आप मेरे पास, मेरे संग रहने चलिये । मैं आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूँगी । आप जायेंगी तो, मेरे साथ ?’
चाची बोली,’ नहीं बेटा, अभी तुम मेरे आँसू के भावावेश में बही जा रही हो । जिसके लिए मैं रात जागी, जिसे मैं अपना कौर खिलाकर बड़ा की ; जब वही अपने नहीं हुए , तो तुम्हारे लिए तो मैंने कभी कुछ किया ही नहीं । फ़िर तुम मुझे अपना बनाकर , अपने घर क्यों रखोगी ? ऐसे भी अब दिन बचे कितने; छ: महीने, साल भर, वो भी इसी तरह निकल जायेंगे । ईश्वर बड़ा रहमदिल है, जब उसकी आँखें मेरी पीड़ा को देख-देखकर थक जायेगी, तो हो सकता है, मैं महीने दो महीने में चली जाऊँ । वह मुझे अपने पास बुला ले । तुमसे मुलाकात हो गई, तो सोचती हूँ, सोनिया ( चाची की बेटी ) से मिलना हो गया । वह भी अब यहाँ नहीं आती । दो साल पहले अपने पिता के श्राद्ध में आई थी । कह गई, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से समय नहीं निकल पाता है । तुमको जरूरत लगे, तो खबर देना; मैं आने की कोशिश करूँगी । तुम्हीं बताओ, अब मेरी आवश्यकता ही क्या रही, दो रोटियाँ ! साल में एक बार जो मिलने नहीं आ सकती, वह प्रतिदिन रोटियाँ पहुँचाने कैसे आ सकती ? वो तो मीना की माँ ( पास की औरत ) है, जो सप्ताह में एक बार कुएं पर ले जाकर मुझे नहला देती है , जब कपड़े मैला देखती है, तो अपने घर से साबुन लाकर उसे धो भी देती है । लेकिन कितना करेगी, उसके भी तो छोटे- छोटे बच्चे हैं ? मुझे तो हर समय उठने- बैठने के लिए सहारे की जरूरत होती है । खैर, यह काम तो दीवार कर देती है । ’ बात करते- करते चाची, खिड़की से हाथ बढ़ाकर, मीना की माँ का घर दिखाते हुए कहती है, ’अंजलि, वो रहा, मीना की माँ का घर ।’ मीना की माँ का घर तो मैं नहीं देख सकी, मगर चाची का हाथ जो आँचल से ढँका हुआ था, जिसे मैं अब तक देख नहीं पाई थी, देखकर कलेजा मुँह को आ गया । हरे- लाल चूड़ियों से लहराते हाथ, कितने सूने हो चुके थे । चमड़े सिकुड़ गये थे । क्या दो साल में चाची की ऐसी हालत; निश्चय ही चाची को लोग यहाँ भर पेट खाना नहीं देते हैं । ५० बीघे खेत की मालकिन को दो रोटियाँ मयस्सर नहीं । सब कुछ पहले जैसा ही है, जैसा दो साल पहले देख गई थी : केवल चाचाजी नहीं हैं । एक औरत की जिंदगी में पति का न होना इतना फ़र्क ला सकता है । अगर ऐसा है तो फ़िर विधाता, एक को पहले ; दूसरे को बाद, अपने पास क्यों बुलाता है ?
चाची मेरी चुप्पी को भांप गई और बोली, ’ चलो, उठो, छोड़ो यह सब सोचकर तुम अपनी तबीयत खराब मत करो । तुमको सुबह ड्यूटी पर भी जाना है ।
तभी बाहर से, किसी ने चाची को आवाज दी ,’ दादी, आकर रोटी ले जाओ । बाहर मेज पर रख दिया है । चाची बिना कुछ बोले, मेरी ओर सूनी निगाह से देखती हुई, मानो कह रही हो, ठीक है, तो तुम फ़िर आना । मैं चाची का पैर छूई और जाने के लिए , कमरे से पैर बढ़ाती कि चाची , मुझे रोकती हुई जो कुछ कही,मेरे कदम वहीं रूक गये । चाची ने कहा ,’ अंजलि, बहुत दिनों से तुम्हारा मिलना, तुम्हारी सहेली से नहीं हुआ है ?
मैंने कहा --- हाँ चाची, देखती हूँ, कब मिलना होता है ? सुनकर चाची के होठों पर मुस्कुराहट दौड़ गई ।
मैंने पूछा,’ क्यों चाची, क्या बात है ?’ चाची बोलॊ ,’ बस दो- चार महीने और इंतजार करो ; इसके पहले सोनिया पिता के श्राद्ध में आई थी ।’
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सम्पर्क – १५०२, सी क्वीन हेरिटेज़, प्लाट – ६, सेक्टर – १८, सानपाड़ा, नवी मुम्बई –४००७०५.
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