Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तुम सोओ, मैं लोरी गाऊँ

 


तुम सोओ, मैं लोरी गाऊँ



कितने नव-नव घन आए, आकर बरस गए

कितने क्षण दमककर, कूलहीन तम में छिप गए

पर तुमको जागते रहते, बरसों बीत गए

आओ आज मैं अपने आँचल की सेज लगा दूँ

तुम सोओ , मैं जागकर तुमको लोरी सुनाऊँ


दो दिन का साथ है, हृदय से हृदय की पहचान करा दूँ

भावों की रानी मुक्त केशिनी खड़ी है द्वार पर

अपनी कल्पना के महल में कुछ पल गुजार लूँ

अपने बिखरे स्वप्नों को, मोतियों से सजा दूँ

हृदय की लगी आग को, तुम्हारी सुधा वर्षण में बुझा लूँ

तुम सोओ , मैं जागकर तुमको लोरी सुनाऊँ


मरु की जलती धूप में चल  चलकर फफोले 

पड़ गए हैं तुम्हारे पाँव में , माँगकर वासंती से सौरभ

उधार, अपने हृदय तुलिका से, उस पर घोल लगा दूँ

नयनों के मौन मिलन में, प्राणों का समर्पण कर दूँ

तुम सोओ, मैं जागकर तुमको लोरी सुनाऊँ


अतीत की विस्मृति से उठ  उठकर, आती है तुमको किसकी याद

कौन है जो आ-आकर उड़ा जाता है, तुम्हारे शुष्क होठों का उपहास

किसकी निर्मम गाथा पर तुम, ढुलकाते हो दृगों से नीर

किन भावों से दुखित होकर, अस्थिर है तुम्हारी साँसों का समीर

छोड़ो अब विश्व वेदना को, जो प्रतिपल अपनी ज्वाला में

तुमको गला गलाकर बनादी है हाड़हीन, शब्दहीन

आओ मेरे पास, मैं अपने आँचल की सेज सजा दूँ  

तुम सोओ, मैं जागकर तुमको लोरी सुनाऊँ


तुम भूल क्यों नहीं जाते हो, निशीथ की वह नग्न वेदना

बार बार दिन की दम्य दुराशा को, क्यों करते हो याद

जबकि अंधेरे का कोई परिचय नहीं होता, दिन को आती नहीं लाज

तुम्हारा कृश देह , म्लान अंग, जगके दुख से जर्जर उर

कहता है, तुम्हारे जीवन में भरा हुआ है दुख ही दुख

आओ तुम्हारे दुख के काँटों को, मैं अपने पलको से चुन लूँ

तुम सोओ, मैं जागकर तुमको लोरी सुनाऊँ

तुम सोओ, मैं जागकर तुमको लोरी सुनाऊँ


मिलकर बैठेंगे हम दोनों जहाँ, संसार हमारा होगा वहीं

तुम मेरे सर्वस्व हो, मैं जीवन ज्योति हूँ तुम्हारी

दुख की कितनी ही घड़ियाँ हमने मिलकर झेले हैं

बाल सूर्य रश्मि  भी हमने मिलपर देखे हैं, आज क्यों

झड़  झड़ कर झड़ रहे हैं, तुम्हारी आँखों से निर्झरिणी

तुम्हीं बताओ झीने आँचल में, तुम्हारे हृदय समुद्र के

तरंगों को कैसे संभालूँ, तुम सोओ, मैं जागकर लोरी सुनाऊँ







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