तुम्हारे हर जुल्म को सहा है मैंने
जिगर -ए-जख्म को प्यार कहा है मैंने
आँखों से बह रही अश्रु की दरिया को
मोहब्बते शराब का सागर कहा है मैंने
मगर तुम्हारी आँखों को गुल -महताब
कहकर , अंगारे का अपमान किया है मैंने
तुमसे दुश्मनी का शौकीन हम नहीं हैं
तुमको दोस्त बताकर गुनाह किया है मैंने
जफाएँ भी देखा , बेवफाइयाँ भी देखी
तुमको बताकर बुरा किया है मैंने
उम्र सारी मायूसी में बीत गई,पछता रहा हूँ
तुम्हारे वादे पर ऐतबार क्यों किया है मैंने
कुछ कहना है तो कहो, मगर यह मत कहो
इजहार -ए-मुहब्बत क्यों किया है मैंने
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