उसकी एक किलक से गूँज उठी कुटिया मेरी
प्रिये ! बरसों पहले जो शिरीष गंध सी रूठकर
स्मृति के कंटक वन में मुझे अकेली छोड़कर
मुझसे दूर , बहुत दूर चली गई थी
आज फिर उसके दुरागत के एक किलक से
वर्षों से सूनी पड़ी , कुटिया मेरी गूँज उठी
देखो ! उसकी मधुर आवाज के कम्पन से
कैसे पल्लव - सी हिल रही हथेली मेरी
देखो ! कैसे मेरी स्मृति की छाया का रूप लेकर
मेरी उत्कंठा को दूनी करने , शशि - खंड सदृश
मेरे जीवन रस का भार लिए,माँ ! माँ ! पुकारती
दौड़ती , वह मेरी ओर बढती आ रही
दृग से झड़ रहे उसके आँसू , मुझसे कह रही
माँ बहुत दिनों से तुमने मुझको छूआ नहीं
आज मेरे धूसरित तन को झाड़- पोछकर, अपनी
गोदी में उठा लो, मैं तुम्हारी ममता को तरस गई
माँ ! तुम नहीं जानती ,जब घोर प्रहर की नीरवता
गहराती,ऊपर पयोधि के प्रांगण में,तब निःस्वर होकर
वहाँ वायु संग दुख चलता ,कंदराओं में सुख सोता
छल की छाया चतुर्दिक बिछी , बिखरी रहती
वहाँ से निकल भागने का कोई रास्ता नहीं है
एक तरफ मेघों में शम्पा की लहक रहती
दूसरी तरफ , देवताओं के गर्जन का तरंग है
यहाँ नव कोमल की उँगली पकड़कर वय चलता
संतान के दुख , आँसू को पीने माँ होती
सिर धुनने पिता होता , दो दीपों की सम्मिलित
ज्योति जागती रहती ,तीनों काल बन पहरा देता
जो शिशिर से झड़ ,नयन नीर से नव कोमल
गालों को झुलसने नहीं देता , स्नेह को
सौन्दर्यता का उपहार , हर वक्त मिलता रहता
काश ! मुझे मालूम होता , सीमाबंध मृत्यु के
आगे प्रीति मेरी , आज भी है जिंदी , तो मैं
अपने इस जीवन को केवल वाड़व जल से
नहीं , बल्कि उसमें दुख , विपदा , व्यथा
चिंता , वेदना का घोल मिलाकर नहलाती
जिससे जागृति और स्वप्न की दूरी मिट जाती
मैं उसकी चिर स्मृति साँस संग रहने चली जाती
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