वसुधैव कुटुम्बकम
ईश्वर प्रदत्त इस दुनिया में जितने भी प्राणी तैर रहे हैं,उन सबों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो स्वतंत्र जनमता है । अन्य प्राणियों में ऐसा नहीं होता । वे दुनिया में अकेले नहीं आते, बल्कि हमशकल वाले और भी परिजन उनके साथ जनमते हैं । बावजूद, ये समाज से जुड़कर नहीं रह पाते । ज्यों-ज्यों ये बड़े होते हैं, त्यों-त्यों एक दूसरे से अलग होते चले जाते हैं । लेकिन स्वतंत्र जनम वाला मनुष्य, ज्यों-ज्यों बड़ा होता है, स्वत: ही समाज, परिवार और देश की जंजीरों से बंधता चला जाता है । लेकिन यह कहना कि मनुष्य का जीवन, बंदी जीवन है, बिल्कुल ही गलत होगा । बल्कि यह बंदी जीवन की यातना का बोध, मुक्ति की चेतना उत्पन्न करता है, जिससे कि समय के साथ वह संस्कारक होता चला जाता है । यही कारण है कि जब हम उदार दृष्टि से विचार करते हैं तब यह विश्व अपना परिवार लगने लगता है अर्थात----
” उदार चरितान्तु वसुधैव कुटुम्बकम “
आध्यात्म
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