वटवृक्ष
गाँव के बाहर, शिव मंदिर के पीछे
गंगा के किनारे, कर्णचौरा के पास
दिशि हरित, शस्यश्री- सा हर्षित
निश्चिन्त कभी यहाँ खड़ा रहता था
पत्ते- पत्ते सघन,श्याम द्युति हरियाली
वाला, ऊँचे बरगद का एक पेड़
फ़ुनगी- तरंग पर डोलता था आकाश
संध्या होते ही विहंगकुल के गुंजन से
गूँज उठती थी, उसकी टहनी डाली
कुछ चिर पथहाराखोजता सा, अपने
एकाकी जीवन का स्नेह - सहारा
आता था उसके पास, बैठकर
ऊपर नभ में अपलक नयन से तारों के
बीच ढूँढ़ता था,जीवन नद का खोया किनारा
रेखाओं में उलझी , आकृति को
सुलझाने में बिता देता था रात
भीतर- भीतर मृत्तिका को फ़ोड़कर वह
पाताल तक बना लिया था,अपनी राह
आकर्षण पूर्ण इंगित छवि उसकी
देख हैरान रहते थे दर्शक, कवि
गढ़ता था कविता, लिखता था
यौवन की वह कैसी मस्ती
जिसे मौत न ललचा सकी
गंगा, गर्जन कर कहती थी वाह-वाह
इतिहास गवाह है,सन चौंतीस का भूकम्प
प्रकृति ने मचायी थी कैसी, क्रूर आतंक
दिशा- दिशा में फ़ैल गया था अंधेरा
उमड़ा था प्रलय जल इतना, लगता था
प्रकृति का फ़ूट गया हो, पाप का घड़ा
सहस्त्रों लोग बेघर हुए थे, चरण-चरण
के नीचे महाकाल, सागर बन डोल रहे थे
तब योगींन्द्र सदृश, निष्कंप अभय सा
खड़ा रहकर यह बरगद का पेड़, दु:स्वप्नों
से जड़े पलक को, दु:स्मृति से पीड़ित उर को
स्वर्गिक शिखरों से ले-लेकर,रजत समीकरण
ताप, शीत,वृष्टि के बहु वार से मूर्च्छित तन के
अंतर को प्राणोज्वल कर, लिया था सँभाल
तप संयम की सुंदरता से. जग जीवन में
लाली भरकर, जन- जन को किया निहाल
आज भी बिहार राज्य के मुंगेर जिले में
स्थित है वह पावन - पुन्य स्थल
जहाँ जाकर लोग करते हैं,श्रद्धानत वंदन
कहते हैं,तुम ईश्वर से कम नहीं,तभी तो
तुम्हारी स्तुति कर भरता नहीं मन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY